पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१५

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१० पुरानी हिंदी कभी व्यवहार मे परिचित नया रूप धर दिया । यह आगे के पाठातरो से जान पडेगा । ऐसी कविता के लिये 'पुरानी हिंदी शब्द' जान बूझकर काम में लिया गया है । पुरानी गुजराती, पुरानी राजस्थानी, पुरानी पश्चिमी राज- स्थानी, आदि नाम कृत्रिम हैं और वर्तमान भेद को पीछे की ओर ढकेलकर बनाए गए हैं । भेदबुद्धि दृढ करने के अतिरिक्त इनका कोई फल भी नहीं है । कविता की भाषा प्राय सब जगह एकही सी थी । जैसे नानक से लेकर दक्षिण के हरिदासो तक की कविता 'बजभाखा' कहलाती थी वैसे अपभ्रश को पुरानी हिंदी कहना अनुचित नही, चाहे कवि के देशकाल के अनुसार उसमे कुछ रचना प्रादेशिक हो । पिछले समय में भी हिंदी कवि सत लोग विनोद के लिये एक प्राध पद गुजराती या पजावी मे लिखकर अपनी वारिणयाँ भाषा में लिखते रहे जैसे कि कुछ शौरसेनी, पैशाची का छोटा देकर कविता महाराष्ट्री प्राकृत मे ही होती थी। मीराबाई के पद पुरानी हिंदी कहे जायें या गुजराती या मारवाडी ? डिंगल कविता गुजराती है या मारवाडी या हिंदी ? कवि की प्रादेशिकता पाने पर भी साधारण भाषा 'भाखा' ही थी। जैसे अप- भ्रश में कही कही संस्कृत का पुट है वैसे तुलसीदासजी रामायण को पूरवी भाषा मे लिखते लिखते संस्कृत में चले जाते है । यदि छापाखाना प्रातीय अभिमान, मुसलमानो का फारसी अक्षरो का आग्रह, और नया प्रातिक उद्बोधक न होता तो हिंदी अनायास ही देशभापा वनी जा रही थी। अधिक छपने छापने, लिखने और झगडो ने भी इस गति को रोका । आजकल लोग पृथ्वीराजरासे की भाषा को हिंदी का प्राचीनतम रूप भानते हैं, उसका विचार हम अपभ्रश के अवतरणो के विचार के पीछे करेंगे किंतु इतना कह देते है कि यदि इन कवितामो को पुरानी हिंदी नही कहा जाय तो रासे की भाषा को राजस्थानी या 'मेवाडी-गुजराती- मारवाडी-~चारणी-भाटी' कहना चाहिए, हिदी नहीं । ब्रजभापा भी हिंदी नहो और तुलसीदासणी को मधुर उक्तियां भी हिदी नहीं । १. जैसे-(क) कविहिं अगम जिमि ब्रह्मसुख अहमममलिनजनेषु । (ख) रन जीति रिपुदलमध्यगत पस्यामि रामनमामय ॥ इत्यादि ।