पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१५६

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पुरानी हिंदी १५५ वञ्चयर %- मूंग चावल बनते है । जिन कायरो के इधर उधर देखते देखते स्वामी पिट गया उन्हें मूंग परोसना वृथा है, मूंग बरबाद करना है । राजशेखर सूरि (स० १४०५) के चतुर्विशतिप्रवध मे यह गाथा रत्नश्रावक प्रबध मे कही गई है जहाँ एक राज- कुमार दूसरो की रक्षा के लिये प्राण देने को तैयार होता है । मुग्गडा-मूंग, डा के लिये देखो प्रवध (१) हारविनॉ, हारना-वृथा खोना, परिविट्ठ-परिविष्ट, रोसा, अवरोप्परु-अवर + उप्पर, नीचे ऊपर इधर उधर, देखते या हुए ऊंच ीच विचारते हुए, दोधकवृत्ति के अनुसार 'परस्पर' । जोअन्ताह-देखो ऊपर (७) जोअतिए । मंजिउ-गजना, पिटना, मारा जाना। (१०३) बम्भ ते विरला केवि नर जे सव्वङ्ग छइल्ल । जो वडा ते जे उज्जुन ते वइल्ल ॥ हे वभा, या वभ कहता है कि, वे, विरल, कोई भी, नर, ( होते है ), जो,- वाग ( = सब तरह ), छैले, होते है, वाके ( होते हैं ), वे, वचक (होते हैं), ओ, ऋजु ( : सीधे ), वे वैल । सब तरह चतुर विरल होते हैं, बाँके तो ठग र सीधे बैल । बंभ-ब्रह्म, कवि का नाम, प्राकृत पिंगलसूत्र के कुछ उदाहरणों र किसी किसी टीकाकार ने लिखा है कि वभ (ब्रह्म ) बदी या भाट के लिये गता है जैसे हरिवभं अर्थात् हरि नामक बदी, ब्रह्मभाट ? छइल्ल-देखो पत्रिका भाग. २, पृ० १४८), वक-वक्र (स० ) युक्ताक्षर को 'न' श्रुति, ज्चयर वञ्चकतर' मानने की जरूरत नहीं, पर अयर कर्तृवाची प्रत्यय है, ज्जुन ऋ की उ-श्रुति । ( १०४-१०५) अन्ने ते दीहर लोमण अन्नु त भुजुअलु । अन्नु सु धण थणहारु त अन्नु जि मुहकमलु ॥ अन्नु जि केसकलाबु सु अन्नु जि प्राउ विहि । जेए निम्विणि घडिअ स गुणलायग्णनिहि ॥ अन्य, वे, दीर्घ लोचन, अन्यं, वह, भुजयुगल, अन्य, वह, स्तन-भार, वह, अन्य, 1, मुख कमल, अन्य, जो, कंशकलाप, वह, (कहाँ तक कहें) अन्य, जो, प्राय धि; जिसने, नितम्बिनी ( नारी), घडी, वह, गुणलावण्यनिधि । प्राउ १०५-); प्राइव ( १०६ ), प्राइम्ब ( १०७ ), पग्गिस्त्र १०८)-प्रायः 1 .