पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१५७

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१५६ पुरानी हिंदी 1 (१०६) प्राइव मुहरिणहवि भन्तडी ते मरिणअडा गणन्ति । अवइ निरामइ परमपइ अज्जवि लउ न लहन्ति ।। प्रायः, मुनियो की (भी), प्राति ( होती है ), वे, मनके, गिनते हैं, अक्षय, निरामय, परमपद मे, आज भी, लय, नही, लहते । 'मनका फेरत जुग गया (कवीर ), मरिणअडा---मणिक, मनके 'ड' कुत्सा मे । (१०७) अमुजलें प्राइम्ब गोरिअहे सहि उन्वत्ता नयरणसर । ते सम्मुह सपेसिमा देन्ति तिरिच्छी घत्त पर ॥ अश्रुजल मे, प्राय गोरी के हे सखि 1, प्रोटे (..है ), नयनशर, वे, समुख, सप्रेषित ( भले ही हो ), देते तिरछी, 'घात, पर। अश्रृजल मे बुझाए हुए हैं न--चाल शोधी है 'पर मार तिरछी । उम्वत्ता--उदवृत्त, उवटे, प्रौटे । दोधकवृति 'नयन सरोवरों' (!) को “अश्रुजल मे 'उल्लसित' बताती है । ( १०८) ऐसी पिउरूसेसु हउँ रुट्ठी मई अणुणेइ । पग्गिम्ब एइ मणोरहइ दुक्कर दइउ करेड ।।। आवेगा, पिय, रूमूंगो, हो, रूटी ( को ), मै (को), अनुनय करेगा (मनावेगा वह) प्रायः इनको, मनोरथो (को), दुष्करो ( को), दयिता, ‘कर । मन के लड्डू खाती है । एसो--स० एष्यति, राज० पासी, रूसेसु- प्राकृत मतेसु, पुरानी हिंदी हनिसो, राज० करस्य, गुज० करोश, दुक्करु-- इसलिये कि पूरा होना वियोग के कारण कठिन है। (१०६) विरहानलजालकरालिप्रउ पहिउ कोवि बुडिवि ठिअनो। अनु सिसिरकालि सोअलजलउ धूम कहन्तिहु उठ्ठिामो ॥ विरहानल' (को) ज्वाला ( से ) करालित पथिक, कोई, डूबकर स्थित (है) नही तो शिशिरकाल मे शीतलजल से धुआँ कहाँ तें, उठा? । जाडे मे पानी पर भाफ उठती देखकर उत्प्रेक्षा । करालिअउ-करालियो, दग्ध, देखो ऊपर ( पत्रिका भाग २, पृ० १५०), पहिउ-मारवाड़ पही, -