पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१६१

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१६० पुरानी हिंदी जो, प्रवास करते के, साथ, न, गया (गई) न, मुना (मुई), वियोग मे, उसके (मैं अब) लजाती हूँ, सदेश, देती हुई, सुभग जन के (को)। पवसन्ते, देन्तेहि-वर्तमान धातुज। लज्जिज्जइ-लजीज, लजाया जाता है, दिन्तेहि- देती हुई (हम) से। (१२०) एत्तहे मेह पियन्ति जलु एत्तहे वडवानल पावट्टइ। पेक्खु गहीग्मि सायरहो एक्कवि करिणम नाहिं प्रोहट्टइ।। इत, मेह, पीते है, जल, इत, वडवानल, प्रौटता है, पेखो, गभीरता, सागर की, एक भी, कनी नही, घटता । एत्तहे 'एत्तहे इत, पावट्टइ-प्रावट, प्रौटे, गहीरिम--(स.) गभीरिमा इमनिच के लिये देखो (ऊपर पृ० ४०५ पत्रिका भाग २, पृ० १४५), करिण-कणिका, कनी, मोहट्टइ-अवघटे । दोधकवृत्ति ने अर्थ के पहले 'हे नाथ' लगाया है, मूल मे तो यह पद नही जान पड़ता, सभव है उसके कर्ता के सामने मूल अथ रहा हो जिसमे से यह उद्धृत है और वहाँ 'नाथ' की सगति (Context) हो । (१२१) जाउ म जन्तउ पल्लवह देख्खउ कइ पय देइ । हिप्रद्र तिरिच्छी हउ जि पर पिउ डवरइ करेइ ।। जाओ, मत, जाते हुए का, पल्ला (पकडू), देखू, के, पद, देता है (मागे), हिए मे, तिरछी, हो, जी, पर, पिय, (आ) डंबर, करै । मैं हृदय मे तिरछी, पाड़ी, रास्ता रोककर खडी हूँ, पिया जाने के आडवर करते हैं, जाना वाना कुछ न होगा, पल्ला वल्ला मैं नही पकडती, जाओ देखें कितने पैड जा सकता है। पल्लवह-पल्ले को? ( १२२ ) हरि मच्चाविउ पक्षणइ विम्हइ पाडिउ लोउ । एम्बहिं राह पयोहरहं जं भावई होउ ।। हरि, नचाया, (प्र + ) आँगन मे, विस्मय मे, पाडा (डाला) लोक, यों (अव) राधापयोधरो का ( = को), जो भावे, सो, हो। जो ये चाहे सो करे, हरि को तो आँगन मे मचा दिया और क्या करेगे? नच्चाविउ-नचाव्यो, पाडिउ-पाड्यो; पातित (सं०), भावइ-भाव। दोधकवृत्तिकार न मालूम, 'वलिदैत्य ने हरि नचाया' कहाँ से ले आए। ..