पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६४ पुरानी हिंदी वढ सयवार । अनुरवतो (को) भक्तो को, मे, मत, तज स्वामी। अनुष्टुभ् छद । खेड्ड-खेल साडे खंडण दे दिन चार (पजाबी गीत ) पाठातर मे 'अपरत्तानो भत्ताओ' है ।। (११४) सरिहिं (न) सरेहि न सरवरे हि न वि उज्जाणवणेहि । देस 'रवण्णा होन्ति निवसन्तेहि सुअणेहिं ॥ सरि (ता) ओ, सगे से, न सरवरो से, न, भी उद्यान दनो से, देस, रमणीय, होते हैं, मूर्ख (कितु होते हैं),(नि) वसते स्वजनो से रवण्ण- रमणीय, रम्य, वढ--देखो (४३, १२८, आदि) । (१३५) हिनडा पइ एहु बोल्लिअनो महु अग्गइ फुट्टिस पिए पवसन्ति हउ भब्य ढक्कारि सार। हिअडा | तै (ने) यह, बोला, मुझ पागे, सो वार, फटूंगा, पिय (के), प्रवास करने (ही), हौ, हे भड, हे अद्भुत दृढतावाले । (अब तो तू नही फटा'), हिअडा--हे हिय, पइ--मध्यमपुरुष, फुट्टिसु--फुटिस्यो, पिएपवसन्ति--- भावलक्षणा, भडय-पाखडी, ढक्कारिसार-ढकर गया, निकल गया है सार, वल जिसका। अर्थात् छूछा (दोधकवृत्ति) किंतु अद्भुत सार (हेमचद्र)। (१३६) एक कुडुल्ली पचहि रुद्धी तह पचह वि जुजुभ बुद्धी। बहिणुए त घरु कहि किब नन्दउ जेत्थु कु डुम्वर्ड अप्पण-छन्दउ ।। एक, कुटी, (शरीर) पाँच (इद्रियो) से, रुंधी गई (रकी), तिम्ह, पांच की, भी, जुदी जुदी! वद्धि (है), वह्न । वह, घर, कह, वि मि, नन्द (प्रसन्न हो), जहाँ, कुटुव, आप--छदा (हो) ? कुडुल्ली-कुटी का कुत्सा या अल्पार्थ, जुअजुन-जुगजुग न्यारी न्यारी, अप्पणछद--पापमुहारा अपने अपने मत के, "खमम पूजते देहरा भूतपूजिनी जोय 1 एक घर में दो मता कुसल कहाँ ते होय' । (१३५) जो, पुरिण मणि जि खसफसिहूअउ चिंतह देह न दम्मु न. रूअउ । रइवमभमिल करगुल्लालिउ घरहि जि कोन्तु गुणइ सोनालिउ ।।