पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७६

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पुरानी हिंदी रवि ( के ) अस्तमन मे, ममाकुल ने, कठ मे दिवा, न, छोना ( - काटा, दांतो से) चक्र (वाक) ने, खड, मृणालिका का नाई जीवार्गला दीना । चक्रवाक ने मृणाल का कोर मुंह मे लिया कि सूर्यास्त हो गया। वियोग का समय आया । बेचारे ने कौर काटा भी नहीं, मुंह में डाल लिया मानो वियोग में जीवन निकल जाय इसलिये अर्गला, (आगल, अरगडा) दे दी । अत्यमरिण-देखो पनिका भाग २, पृ० ५६ । विइण्ण-वितीर्ण, चक्के कर्मवाच्य का कर्ता जैसे मैं ते ( मइ, तइ, ) 'ने' वृथा है, पजावी राजे = राजा ने । नउ-उपमावाचक देखो ( ५ ), जीवनगलु-जीव+ अर्गला । मस्कृत के इस श्लोक का भाव है--- मिन्ने क्वापि गते सरोरहवने बद्धानने ताम्यति क्रन्दत्सु भ्रमरेपु जातविरहाशका विलोक्य प्रियाम् । चक्राह्वन वियोगिना विलसता नास्वादिता नोज्झिता कण्ठे केवलमर्गलेव निहिता जीवस्य निर्गच्छत ॥ -सुभाषितावलि स० ३४८३, पोटसंन । ( १६६) वलयावलि-निवडण-भएण घण उद्धभुन जाइ । वल्लहविरह महादहहो थाह गवेसड मा॥ वलयावलि (के ) निपतन (के ) भय से, नायिका, अश्वंभुज, जाय ( जाती है ), वल्लभ (के) विरह ( रूपी) महादह की, थाह, ढूंढती है, मानो ! वियोग मे दुवली हो गई है। चूडियां गिर न जाये इसलिये चाहें ऊंची करके जाती है । मानो प्रिय के विरह के महादह को थाह ढूंढ रही है, नही पाती । जो गहरे पानी की थाह लेना चाहता है वह सिर पर हाथ ऊँचे कर लेता है कि पानी सिर से ऊँचा है । उद्धन्भुन-अद्धं + भुज, धरण- देखो (१), दह ( स०) ह्रद का व्यत्यय मिलानो कालीदह, गवेसइ- सं० गवेषयति, नाइ-नाई, देखो (५)। ( १७० ) पेक्वेविण, मुहु जिपवरहो दीहरनयण सलोरा । नावइ गुरुमच्छरभरिउ जलणि पवीसइ लोए ॥ पेखकर, मुंह, जिनवर का, दीर्घ नयन ( वाला ) सलोना, मानो गुरुमत्सरभरित, ज्वलन (भाग ) मे, प्रविगै, लावण्य ! इतना सुदर मुख