पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पुरानी हिंदी १७ 1 - नूनं बादल छाइ; खेह' पसरी नि.यारणशब्दः पर शव पादि लुटालि तोडि हनिसों एव भणत्यद्भटा । । “मूळे गर्व भरा मघालि ( ? ) सहसा रे कन्त मेरे कहे कंठे पाग निवेश जाह शरण श्रीमल्लदेव विमम् ॥ इन अवतरणो से जान पडता है कि उस समय हिंदी के दोनों रूप प्रचलित थे, खडा और पडा । 'बादल छाइ खेह पसरी' भी है और 'रे कत मेरे कहें भी है 'कुक्कुर जिमि पुंछी दुल्लावई' 'बाधरणी कउ मुख' भी है और 'कालियाविरणो की दुहाई' और 'गुरु के पाय' भी है। अपभ्रम का नपु सक प्रथमा एकवचन का चिह्न भो चलना था वर्तमान में भी 'उ' था, प्राज्ञा मे इ, उ, हु, हया, हि हटकर कोरा धातु भी रह गया था । (२), प्रबंधचिंतामणि से प्रवचिंतामरिण नामक संस्कृत ग्रथ..जन प्राचार्य मैरनु ग ने मवत् १३६१ मे वढ़वान मे बनाया। ववई के डाक्टर पीटर्सन के शास्त्री दीना- नाथ रामचद्र ने ववई मे स. १६४४ मे कई हस्तलिखित प्रतियों से मिला- कर इसका मूल छापा जो अब दुप्प्राप्य है । उन्होंने इसका वढाया हुप्रा गुजराती भाषातर भी छपवाया था जो मैंने देखा नहीं । सन १९०१ में टानी ने और कई मूल प्रतियो की सहायता मे इसका अंगरेजी अनुवाद छापा । दोनो के अनुवाद कैसे है यह यथास्थान प्रकट होगा । इत्त पुस्तक मे कई ऐतिहासिक प्रबध या किस्से है कई बातो मे यह भोजप्रबंध के ढंग १.धूल। २. फाड लूट और तोडकर मारूँगा [हनिसों, मिलायो राजस्थानी करस्यूं, संस्कृत हनिष्ये । ३. पगडी उतारना और गले मे कपडा प्रादि डालकर मामने माना अधीनता का चिह्न जैसे, वर्तमान वगालियों का अभिवादन, दसन गहहु निन कठ कुठारी [ तुलसीदास ], अपनीत शिरस्त्राला शेषास्तं शरण ययुः { रघुवंश ] । अल्पमैन्यो मरनसूनुर्वायत्तम्माद- शकत। अपनीतशिरस्त्राणस्तावत्ल तमवन्त { राजतरगिरणी ७.१५४४ ] । कण्ठयद्धपिर नाट गोरेणोपरानह पन् । वेलोऽपि भूपाल कर्तुं नाशकद धम् । [ राजनरगिरी ! पु० हिं० २ (११००-७५)