पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/२३

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पुरानी हिंदी की है । जैन धार्मिक साहित्य में अपने मत को 'प्रभावन" वढानेवाले किस्सों का स्थान बहुत ऊंचा है। जैन धर्मोपदेशक अपने साधु तथा श्रावक शिष्यों के मनोविनोद और उपदेश के लिये कई कथाएँ कहा करते हैं जो पौराणिक, ऐतिहासिक या अर्ध ऐतिहासिक होती हैं । इन कथांमओ के कई सग्रह अथ हैं जिनमे पुराने कवियो की रचना, नए कवियो के नाम, पुराने राजानो के कर्तव्य, नयो के नाम, विक्रमादित्य भी जैन, सालिवाहन भी जैन, वराहमिहिर भी जैन, ब्राह्मण विद्वानो और अन्य शाखा सप्रदायो के .जैन विद्वानो का अपने इष्ट- सप्रदाय के प्राचार्यों से सवां पराजय, प्रादि बातें भी रहती हैं जो वर्तमान दृष्टि से ऐतिहासिक नही. कहला सकती। कितु उस समय के हिंदू ग्रथ भी ऐसे ही हैं। उनमे देखा जाय तो ऐतिहासिकता की उपेक्षा जैनो की अपेक्षा अधिक की गई है। इसलिये केवल जनो ही को उपालम दिया नहीं जा सकता । इतना होने पर भी जैन विद्वानो के इतिहास को ओर रुचि रखने और उसकी मूलभित्ति का सहारा न छोड़ने के प्रमाण मिलते हैं । यो तो सम्राट अशोक की धर्मलिपि के शब्दो मे 'आत्मपाषडे पूजा परपाषडे गहाँ सभी दिखाते हैं । स० १३६१ का समय पृथ्वीराज और रासे के कल्पित कर्ता चद के समय (१२५० स०) से ११० (वर्ष) पीछे ही का है। उस समय की प्रचलित भापा कविता अवश्य मनन करने स० १३६१ मेस्तुग के इस चिंतामरिण के संग्रह करने का समय है। कोई भी उद्धृत कविता उसने स्वय नही रची है। कथानो में प्रसंग प्रसग पर जो कविता उसने दी है वह अवश्य ही उसमे पुरानी है। कितनी पुरानी है इसका अर्द्धतम समय तो स्थिर नही किया जा सकता, कितु प्रबंधचितामरिण की रचना का समय उसका निम्नतम उपलब्धि काल अवश्य है। उससे पचास साठ वर्ष पहले यह कविता लोककथायो मे प्रचलित हो या ऐसे घिसे सिक्के यदि सौ दो सौ वर्ष पुराने भी हो तो आश्चर्य नहीं। कुछ, दोहे ऐसे हैं जो धार के प्रसिद्ध राजा भोज के चाचा मुज के नाम पर हैं, उसके बनाए हुए कहे गए हैं। एक गोपाल नाम किसी व्यक्ति ने भोज से कहा था। दो चारणो ने हेमचद्र को सुनाए थे। कुछ नवधन राजा के मरसिये हैं। स०.१३६१ के लिखित ऐतिह्य के अनुसार वे उस समय के हैं । इन कविताओ को शास्त्री ने मागधी और टानी ने प्राकृत समझा है। योग्य है।