पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/२७

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+२२ पुरानी हिंदी पाषाणसत्कजातीय; सत्क = का । कारापक-करानेवाला । तापिका--तई ( कडाही), तपेली (तापकोऽपूपादि करणस्थान तापिका काकपालिका यन तलादिना भक्ष्याः पच्यन्ते, हर्षचरित पर सकेत टीका) । वप्ता--बाप ( देखो पागे ११)। चतु:सर- चौसर, एक तरह का फूलो का हार । फुल्लावयिष्यसि-फुलावेगा, फूल उपजावेगा। कतुं लग्न.-करने लगा। धातुनो की अनतता, प्राकृतिगरण और उणादि की अक्षय निधि से संपन्न वे विद्वान् जो मा धातु से डिया, डुलक, डौलाना प्रत्यय बनाकर .मियां, मुलक, मौलाना सिद्ध कर लेते हैं या हमारे प्राचार्यदेशीय सुग्रीहोतनामा सर्वतनस्वतन सतीयं जो 'जयो जयशीली करू यस्याः सा जयोरू-जोरू (स्त्री) बनाते है, उन्हें इन उदाहरणो मे कुछ चमत्कार न जान पड़े किंतु ये देशभाषा से गढ़े हुए संस्कृत के उदाहरण हैं। कितना ही बाँध दो, जल तो नीचे की ओर रिसता ही है। देशी शब्द और वाग्धारा सस्कृत के लिये अछूत न थी, सस्कृत में इतना लोच था कि उन्हें अपना लिया करती। प्रबधचितामरिण में एक जगह 'आशिष' शब्द प्रकारात काम मे लिया है (मातुराशिपशिखाकुरिताद्य-वस्तुपाल की रचना, पृ० २६६) 'श्वान' भी (सन्निहितश्वानेन शुण्डादण्डे निहत्य पृ० १८०, --कुक्कुरस्तु शुनिः श्वान इति वाचस्पतिः, शास्त्री)। जयमगल सूरि 'चातुर्यता' लिखकर हिंदी के डवल भाववाचक का वीज बोते हैं (पोरवनिताचातुर्यतानिजिता, पृ० १५४)। कवि श्रीपाल ने सिद्धराज जयसिंह के सहस्र लिङ्ग सरोवर को प्रशस्ति वनाई । उसमे यह श्लोक भी था- कोशेनापि युत दलरुपचित नोच्छेत्तुमैतत्क्षम स्वस्यापि स्फुटकण्टकव्यतिकर पुस्त्व च धत्ते नहि ।। एकोप्येष करोति कोशरहितो निष्कण्टक भूतल मत्वैव कमला विहाय कमल यस्यासिमाशि श्रियत् ।। (कमल मे कोश---डोडी और खजाना है, दल-पत्ते और सेना है, उखड नही सकता, आप ही इसमे कटक-कौटे और शत्रु का उपद्रव है, कभी इसमें .