पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/२९

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२४ पुरानी हिंदी करता था, करती थी, स० प्रायान् ('आयन्ति ) आयान्ती, कुर्वन् (कुर्वन्त करन्त ), कुर्वन्ती ( करन्ती) ] अवश्य ही प्रॉज्ञों, विधि क्रिया में लिंग नहीं है क्योकि वे धातु के ही रूप हैं । इन धातुज वर्तमान और भूत धातुज विशेषणो का क्रिया के स्थान पर काम मे पाना भाषा के विकास मे एक नया युग प्रकट करता है। वैदिक संस्कृत मे भूतकाल की क्रिया के तिडन्त रूप ही आते हैं, स गतः, तेन कृतम्, अह पृष्टवान्, भादि रूप अलभ्य नही तो अतिदुर्लभ हैं । पीछे सस्कृत मे ये निष्ठा के रूप क्रिया का काम देने लगे, उनमे विशेषण होने के कारण लिगभेद भी था। भाषा मे वडी सरलतामा गई, सः ( सा ) चकार, अकरोत्, अकापीत् की जगह स कृतवान्, सा कृत- वती, तेन कृतम्, तया कृतम् से काम चलने लगा । यो भूतकालवाची धातुज कृदत को (past participle.), चाहे वह कर्तरि प्रयोग हो चाहे कर्मणि या भावे, विशेषण की तरह ,रख कर आगे अस्ति ( होना- क्रिया का वर्तमान काल का रूप ) का अध्याहार करके भूतकाल का काम चलाया जाने लगा। आर्ष प्राकृत मे कुछ भूतकालिक क्रियापद है, पीछे प्राकृत मे प्रासी (मासीत्- पजावी सी) को छोड़कर भूतकालिक क्रिया मानो रही ही नहीं, इन्ही त वाले विशेष्य- निन शब्दो से काम चला। यह तो पहली सीढ़ी भापा की सरलता मे हुई। संस्कृत और प्राकृत के रचनावचिन्य मे इससे बहुत सहायता मिली कि वैदिक संस्कृत से प्राकृत और लौकिक सस्कृत में मोते आते भूतकालिक क्रिया का काम विशेषण देने लगे, वैयाकरणो की भाषा मे 'कृदर्भिहित आख्यात' हो गया । इसी तरह वर्तमान काल की क्रिया भी केवल अस्ति (होना धातु की) रहकर वर्तमान धातुज विशेषणो का क्रियापद का काम देने लगना दूसरी सीढी है जो प्राकृत से अपभ्रश या पुरानी हिंदी बनने के समय हुआ । उपजइ, उपज, करइ, कर यह तो धातु के (तिइन्त) रूप हैं, इनमें लिंगभेद नही है, इनका. इ (यो मुख सुख का ऐ) सस्कृत 'ति' और प्राकृत 'इ' है। किंतु उपजता है । या उपजती है ), करता है ( या करती है ), मे 'हे' ( अहै-अहइ-अस्ति ) धातु का रूप है और पहले पद वर्तमान धातुज विशेषण (Present Participle) है (उत्पद्यन्- उत्पद्यन्ती-उपजंती--उपजती; कुर्वन् --कुर्वत-करते- करत, कुर्वती--करती-करती ) । इस विशेषण के वास्तव रूप के अत मे अत, प्रती ही है जो सस्कृत और पुरानी हिंदी दोनो मे स्पष्ट है । उसी का प्रत, प्रती हो जाता है। करतो, उपजतो मे 'ओ,'उ' की जगह है उत्पद्यंत उपजन्त