पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/३१

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.२६ पुरानी हिंदी कुछदे दिए हैं - नारायणह कहिज्ज, जगु, दुत्थिर (दुच्छिउ ) । परसवर्ण नियम वैकल्पिक होने से हमने कही-कही अनुस्वार का प्रयोग किया है भौर ह्रस्व दीर्घ को अधिक बदला नहीं । अर्थ-~-एक समय विक्रमादित्य रात को नगर मे धूम रहे थे कि एक तेली को उन्होने यह आधा दोहा पढ़ते सुना कि 'हमारा सदेशा तारनेवाले (तारक) कान्ह (पाठातर मे नारायण) को कहना' । राजा बहुत देर तक ठहरा रहा कि देखें आगे क्या कहे किंतु उत्तराद्धं न सुनकर लौट आया। सवेरे दरबार मे बुलाए जाने पर तेली ने दोहा यो पूरा किया-'जग दारिद्रय मे डूब रहा है, वलिवधन को छोड़ दीजिए'। दैत्य वलि बड़े दानी थे जिन्हें नारायण ने बांध कर पाताल में भेज दिया था। यदि तेली की प्रार्थना पर तारक कान्ह उसके बधन छोड देते तो जग दारिद्रय से उबर पाता। बलि का अर्थ राजकर भी होता है। राजा कदाचित् यह समझ रहा हो कि तेली मेरी बड़ाई में कुछ कहेगा किंतु वह तो गजा को ताने से सुना रहा है कि हम तो दारिद्रय में डूब रहे हैं और वलिवधन (करो का वोझ) छुड़ाने की प्रार्थना करते हैं। टानी ने पूर्वाद्ध का अर्थ किया है 'हमारा राजा वास्तव में नारायण कहलाने योग्य है, और उत्तरार्द्ध लिये शास्त्री तथा टानी दोनो कहते हैं कि 'बलिवधन नही छोड़ा गया'। सदेसड़उ का अर्थ टानी ने राजा कैसे किया यह चित्य हैं । 'बलि- बधगह को 'बलिबधरण ह' पढने से उत्तरार्द का यह अर्थ हो सकता है कि 'बलिवध न छोड़ा गया' किंतु कहिज्ज (कहीजे, कहजे, कहिए) के साथ से मुहिज्ज का अर्थ छोड़िए ही ठीक है, छोड़ा गया (मोचित) नहीं । विवेचन-अम्मणिप्रउ-अम्हणिमल, स० अस्मानं (!), अस्मनीय (!), आगे अम्हीणा- हमारा आवेगा। 'ण' (स० नाम्) सवध कारक का है (प्रा० अम्हाण), गीतो की पजावी मे रण का ड हो गया है मैंडा, तडा । संदेसड़उ-जैसे सस्कृत मे अल्प, अज्ञात, कुत्सित स्वार्थ मे 'क' आता है वैसे पुरानी हिंदी मे 'ड' या 'डल' आता है जैसे, मोर-मोरडो, नीद-नीदडली (मारवाडी), रत्ति (रात)- रत्तिडी, आदि । तारय-तारक (को)। कन्ह- कृष्ण, कन्ह, व्रजभापा का कान्ह । कहिज्ज-विधि, प्रेरणार्थक, और कर्म वाच्य मे जहाँ जहाँ सस्कृत मे 'य' पाता है वहाँ 'ज' या 'ज्ज' आता है जैसे, मरीजै (मरा जाय), करीज (किया जाय, महाराज कह तिलक करीज,- तुलसीदास), कहज्ये (राजस्थानी)-तू कहना, लिखीज गयो (मारवाड़ी) -