पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/३९

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३४ पुरानी हिंदी भोलि मुधि मा गन्यु करि पिक्खिवि पडुगुपाइ। चउदसइ सइ छहुत्तरइ मुज्जह गयह गया। पाठातर-धनवती म गन्बु, पडुरुवाइ, पट्टकरूपाणि, पडुकयारिण, पडुक- रुपाणि, चउदसइ, छउत्तर । अर्थ--हे भोली, हे मुग्धे, (पाठातर मे है धनवती) मत गर्व कर, मुझे हाथ मे पडुग लिए देखकर, चौदह सौ छिहत्तर मुंज के हाथी (चले) गए । मुधि-स० मुग्धा, मारवाड़ी में मोधा मूर्ख को कहते हैं। यह 'न' भी स० मुग्ध प्रा० मुध्ध के द्वित्वसूचक चिह्न से बना है, देखो, (६) मे मकड की व्याख्या। पिविखवि-पेखकर । पडुगु-पडुअा, पत्तो का दोना, या भीख मांगने का पान । पाइ-पारिण, हाथ । सई-से, सौ । चउदसइ, सइ, छहत्तरइ, गयाइं-मे इ कर्ताकारक का नपुंसक का बहुवचन (स० नि०) है और मुजह, गयह-मे ह सवधकारक का है। (६) जा मति पच्छइ सपज्जइ सा मति पहिली होइ । मुज भरणइ मुगालवइ विधन न वेढइ कोई ।। प्रर्य---जो मति पीछे सँपजती (होती) है वह मति पहली होय तो मुज फहता है कि हे मृणालवति । कोई विघ्न नही घेरे। जा सा-जो सो (स्त्रीलिंग) । सपज्जइ स० सपद्यते, स+पद् = सपजना, उद + पद = उपजना, निस + पद् = निपजना। वेढइ--घेरता है, पजावी वेढा, घिरा हुश्रा मकान, जनाना, वेढ पूरी-बीच मे कचौरी की तरह भरी हुई । शास्त्री का अर्थ है--विघ्न को कोई नहीं वहता (उठाता), टानी का "कोई (मेरे मार्ग मे) विघ्न नही डालता'। (१०) सायर पाई लंक गढ गढवइ दससिरि राउ । भग्गक्खय सो भज्जि गय मुज म करि विसाउ ।। अर्थ- सागर खाई, लंका गढ और दससिर राजा (रावण) गढपति--- भाग्य का क्षय होने पर वही तहस नहस हो गया, (तो) है मुज, विपाद मत कर।