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वक्तव्य

'पुरानी हिंदी' नाम बहुत सोच-विचारकर प्रयुक्त किया गया है, पुगनी बैंगना, पुरानी गुजराती, पुरानी राजस्थानी, पुरानो मराठी प्रादि प्रयोगों का भ्रम मिटाने के लिये । जैसे व्रजभाषा के सर्वनामान्य भाषापद पर प्रारूढ होने पर उनका प्रयोग प्रत्येक प्रात के निवामी करने लगे और अपने प्रात के प्रयोग जाने-अनजाने उसमें रख चले पर रोठ व्रजभाषा ही रही, वैसी ही स्थिति अपभ्रश को भी थी । जिस प्रकार नानकजी की भाषा पजावीपन लिए हुए है, श्रीभाग्नीचा को बंगलापन, समर्थ गुरु रामदास की मराठोपन, मीरां की गुजरानी-राजस्थानीपन, पर है वह ब्रजभाषा ही, उसी प्रकार जिसे 'पुरानी हिंदी' कहा गया है वह हिंदी ही है, पर उस सोपान तक पहुँचकर प्रातीय स्प कुछ कुछ और कहीं कही परिस्फुट होने लगे थे । जिसे वैयाकरण अपभ्रश कहते हैं वस्तुन उनके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दो स्पष्ट स्वरूप भेद है । पूर्ववर्ती अपभ्रश तो प्राकृत से मिलता जुलता है और उत्तरवर्ती हमारी हिंदी से। उत्तरखनी मानश मे सर्वसामान्य भारा का रूप ही न रह गया हो, ऐसा नहीं है । उसे 'प्राकृतपैगलम्, की टीकाग्रो में 'अवहट' भी कहा गया है। विद्यापति ठाकुर ने भी अग्नी कीर्तिलता को मापा का नाम “अवहट्ट' ही दिया है-

देसिल बयना जन मिट्टा ।

तें तैसन जपनो अवहट्टा।

कीतिलता मे अपभ्रश की सर्वसामान्य प्रवृत्ति के माय माय पूरदीपन की भी "झलक यत्र तत्र मिलती है । 'अवहट्ट' का एक नाम "पिंगल' भी है । राजस्थान में प्रातीय भाषा का नाम 'डिंगल' और सर्वनिष्ठ भाषा का नाम 'गिल, था। उसे

"पिगल' ( अपभ्रंश ) कहने का हेतु उममे उत्तरवर्ती अपनश को को और प्रयोगो का ग्रहण ही था। राजस्थान को "पिंगल भाषा नजभाषा ही है पर उसमे ब्रजभाषा के परवर्ती विकसित रूपो के साथ साथ पुराने प्राकृत्तानाम और अपभ्रशानुरूप शन्दो और प्रयोगो का आग्रह बराबर रहता था । 'भारतगनन्' में दिए हुए उदाहरणो के साथ राजस्थान में प्रचलित "पिंगल भाषा' की रचना को मिलाने से यह धारणा बहुत स्पष्ट हो जाती है। भिखारीदास जी ने 'फाय- 'निर्णय' मे जो ब्रजभाषा मे मिश्रित होनेवालो भारामो के प्रमग ने 'नाग जवन