पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/४५

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४० पुरानी हिंदी कर हैं। यह समाचार सुनकर गुजरात के राजा भीम (सोलकी) ने एक गोपाल भोज के पास भेजा। उसने राजा को एक दोहा सुनाया जिसपर राजा ने उसे सरस्वतीकठाभरण' गोप की उपाधि दी। भोय एहु गलि कठुलउ भरण केहउ पडिहाइ । उरि लच्छिहि मुहि सरसितिहि सीम निबद्धी काई ।। पाठातर-भोज एव हु कण्ठलउ, स्तभल्लउ, कचुल, लच्छिहि काई, सीम विहली, कोड, पाठातरो मे अधिकरणकारकवाले पद विना 'इ' के भी है। अर्थ-भोज | कह तो सही, यह ( तेरे ) गले मे कठला कैसा भाता है ? उर में लक्ष्मी और मुंह मे सरस्वती के बीच यह सीमा बाँधी है क्या ? विद्वान् राजा के मुंह में सरस्वती और प्रभु के उर में लक्ष्मी--बीच मे कठला क्या हुमा मानो उन दोनो के राज्य की मर्यादा जतला रहा है । कठुलउ--कठलो, कठलो, गले का गहना। केहउ केहो, कसो। पडिहाइ---स० प्रतिभाति । निवद्धी-नि+ बांधी। काइ-क्यो, किमलिये, क्या। (१७) एक समय भोज परिचर्या से रात को नगर मे धूम रहे थे कि उन्होंने किमी दरिद्र की स्त्री को यह दोहा पढते सुना-- माणुसडा दसदस दसा सुनियइ लोय पसिद्ध । मह कन्तह इक्कज दसा अवरि ते चोरिहि लिद्ध ॥ पाठातर----मारणसडी, दस दस हवइ, मारणसडा (दस दस) दसइ देवेहि निम्मवियाइ, मुज्झ, नवोरहिं हरियाइ, ते बोरहि हरियाई, नवोरहिं लिद्ध । पाठातरो से जान पड़ता है कि इस दोहे के दो पाठ हैं, एक में तो सिद्ध लिद्ध की तुक है, दूसरे मे निम्मवियाइ हरियाइ की तुक है । अर्थ--मनुष्य की दस दस दशाएँ लोकप्रसिद्ध सुनी जाती हैं,. या दस दस दशा देवताओ ने बनाई है। अर्थात् जन्म भर मे दश दशा बदलती है, किंतु मेरे कत की एक ही दशा (दारिद्रय) है और (जो थी) उसे चोरो ने हर ली (या और नी औरो ने ले ली) । मिलामो, हस्तिमा दशवर्षप्रमाणा दश दशा किल भवंति (हर्पचरित की सकेत टीका)।