पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/५

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भाषानि' लिखा है, उसमें 'नाग' भापा का तात्पर्य "पिंगल भापा ही है 'पिंगला- चार्य' शेषनाग के अवतार भी तो माने जाते हैं । गुलेरीजी ने 'पुरानी हिदी' नाम देकर वात बहुत सटीक कह दी। हिंदी किस प्रकार पारपरिक सार्वदेशिक भाषा का स्थान ग्रहण करती हुई आगे बढी इसका बहुत स्पष्ट ज्ञान इस पुस्तक मे उद्धृत अवतरणो से हो जाता है । इसके समन्वय के लिये उन्होने स्थान-स्थान पर प्रातीय भापायो, ब्रजभाषा के सर्वसामान्य रूपो, प्रयोगो आदि के शब्द-प्रति- शब्द उद्धरण भी बरावर दिए है। हिंदी की सार्वदेशिक या राष्ट्रीय प्रवृत्ति और प्रकृति का अनुशीलन करने के लिये यह प्रवध वडे काम का है इस सोपान पर पाकर 'पुरानी हिंदी मे किस प्रकार प्रादेशिक प्रवृत्तियाँ स्फुट हो चली थी इसका परिचय इसी प्रवध के आधार पर स्वर्गीय आचार्य रामचंद्र जी शुक्ल ने अपने 'बुद्धचरित' की भूमिका में दिया है और हिंदी की तीनो प्रधान उपभाषामो-व्रज, अवधी और खडी--का पार्थक्य स्पष्ट किया है । यद्यपि अपभ्रश की बहुत सी सामग्नी इधर उपलब्ध हो गई है पर इसके जोड़ का दूसरा प्रवध आज तक प्रस्तुत नहीं हुआ । 'पुरानी हिंदी' गुलेरीजी का वही प्रबध है जो नागरोप्रचारिणी पत्रिका के नवीन सस्करण, भाग २ मे प्रकाशित हुआ था । सभा से जो 'गुलेरी- अथ' प्रकाशित हो रहा है उसी के द्वितीय खड मे यह प्रवध प्रकाशित होता और होगा भी। 'गुलेरी अथ' के सुयोग्य सपादक श्री कृष्णानद जी सहसा अस्वस्थ हो गए और अब तक वे पूर्णतया प्रकृतिस्थ नहीं हो सके। इसी से उसके प्रकाशन मे कुछ विलब है । इधर अनेक विश्वविद्यालयो के पाठ्यक्रम मे नियत होने के कारण इस प्रवध की मांग बहुत थी। विचार था कि इसमे उद्धृत अपभ्रश या अवहट्ट के अवतरणो की वैज्ञानिक टीका-टिप्पणी कराकर जोड दी जाय । पर मांग इतनी अधिक हो गई कि इसे पृथक् पुस्तिका के रूप मे ज्यो का त्यो तुरत मुद्रित कर देना ही श्रेयस्कर समझा गया । यत्र तत्र जो दो चार छापे की अशुद्धियाँ थी उन्ही का सशोधन कर दिया गया है। प्राशा है हम बहुत शीघ्र इसका इच्छित सस्करण भी निकाल सकेंगे। वासतिक नवरात्र, विश्वनाथप्रसाद मिश्र (साहित्य-मंत्री) स. २००५ वि०