पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/५१

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१४६ पुरानी हिंदी लच्छिवारिणमुहकारिण एयद भागी मुह भर। हेममूरि अच्छोणि जे ईसरते ते पण्डिया ।। अर्थ--इस भागी (भाग्यवान् हेमचद्र) के मुख मे भरे (स्थित हेमचन्द्र के नेत्र ) लक्ष्मी और सरस्वती दोनो के मुखवाले ( - युक्त) हैं, जिसपर वे कुछ भी प्रसन्न हो जाते हैं, वे पडित हो जाते है। यह अर्थ कुछ खैचकर किया गया है क्योकि सोरठा स्पष्ट नहीं है । -शास्त्री ने एक पाठातर का दूसरा अर्थ दिया है जो विलकुल ऊटपटाग है। 'लक्ष्मी कहती है कि ये यति (ए यइ) वाणी को मुख में रखनेवाले है इसलिये (सौत की ईर्ष्या से ) मैं मरती हूँ। तो हेमसूरि से छिप छिपे (हेमसूरि पा छाणि) वे भाग गए, इसलिये जो ईश्वर (समर्थ) हैं वे पडित है, पडित लक्ष्मीवान् नहीं' । पाठातर--पयइ, मरउ, सूरिमा छाणि । लच्छिवारिणमुहकारिण-~-मुखक (स०)-प्रभृति, आदि । एयइ--यह "ऐसा । भरउ --भयो । ईसरते--ईषद्रते? (स.) कुछ भी प्रेम करते हुए। छाणि (स• छन्य छाद्य ?) छिपकर, राजस्थानी-छाने । (२८) वह चारण तो बैठ गया ! इतने में कुमारपाल विहार में भारती के समय महाराज कुमारपाल पाए और उनके प्रणाम करने पर हेमचद्र ने उनकी पीठ पर हाथ रखा । इतने में दूसरे चारण ने कहा-- हेम तुहाला कर भरउ जाह अच्चम्भू रिद्दि । जव पह हिठा मुहा ताह पहरी सिद्धि । पाठातर--जिह अच्चुपुरिद्धि, जे चपह हिता मुहा तीह उवहरी सिद्धी । अर्थ--हे हेम, तुम्हारा हाथ जिन पर भरा (रक्खा) है उनके तो अचों की सी रिद्धि होती है और जिनका मुंह नीचा होता ( या जो नीचे मुख से [ आपके पांव ] दवाते है ) उन्हे आपने सिद्धि उपहार में दी । यह अर्थ शास्त्री और टानी दोनो के अर्थ से भिन्न है, वे दोनो सतोषदायक नही है । चारण कुमारपाल की अचभे को सी संपत्ति को हेमचद्र के पीठ पर हाथ रखने और सिद्धि के उपहार को नीचे मुंह से पैरो मे प्रणाम करने के कारण मानता है । यह विरोधाभास भी हो सकता