पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४ पुरानी हिंदी उससे प्राकृत, . सस्कृत उससे उत्पन्न शौरसेनी, उसमे मागधी, पहले की तरह पैशाची, और देशजा ये छह हुई । मालूम होता है कि प्रकृति शब्द के अर्थ में भ्रम होने से तत आगत तदुद्भवी और तत आदि को कल्पना हुई । प्रकृति का अर्थ यहाँ उपादान कारण नहीं है। जैसे भाष्यकार ने बहुत सुदर उदाहरण दिया है कि सोने से रुचक बनता है, रुचक की आकृति को मोड तोडकर कटक बनते हैं. कटको से फिर खैर की लकडी के अगारे के से कुडल बनाए जाते हैं। सोने का सोना रह जाता है, वैसे भापा से भापा कभी नहीं गढी गई। यह प्रकृति शब्द मीमासा के रूढ अर्थ में लिया जाना चाहिए । वहाँ पर प्रकृति और विकृति शब्द विशेष अर्थो मे लिए गए हैं। साधारण , नियम नमूना, माडल उत्सर्ग इस अर्थ मे प्रकृति आता है, विशेष, अलौकिक भिन्न, अतरित अपवाद के अर्थ मे विकृति आता है। अग्निप्टोम यज्ञ प्रकृति है, दूसरे सोमयाग उसको विकृति है। इसका अर्थ यह नहीं है कि और सोमयाग अग्निष्टोम से निकले है या उमसे आए हैं। अग्निष्टोम की जो रीति है उससे दूसरे सोमयागो की रीति बहुत कुछ मिलती और कुछ कुछ भिन्न है, साधारण रीति प्रकृति मे दिखाकर भेदो को विकृति मे गिन दिया है । पारिणनि ने भापा (व्यवहार) की संस्कृत को प्रकृति मानकर वैदिक संस्कृत को उसको विकृति माना है, साधारण या उत्सगं नियम सस्कृत के मानकर वैदिक भापा को अपवाद बना दिया है वहाँ प्रकृति का उपादान कारण अर्थ मानकर क्या वैदिक भाषा को 'तत आगत' या 'तदुद्भव' कह सकते हैं, उलटी गगा बहा सकते है ? शौरसेनी की प्रकृति सस्कृत और महाराष्ट्री की प्रकृति शौरसेनी कहने का यही आशय है कि साधारण नियम उनके सस्कृत या शीरसेनी के से और विशेष नियम अपने अपने भिन्न हैं। प्रकृति से जहां समानता है, उसका विचार व्याकरणो मे नही है, जहाँ भेद है वही दरसाया गया है । हेमचन्द्र ने पहले (महराष्ट्री ) प्राकृत का व्याकरण लिखा। आगे शौरसेनी के विशेष नियम लिखकर कहा, शेष प्राकृतवत् [८।४।२८६ ], फ्रि मागधी के विशेष नियम लिखकर कहा, शेष शौरसेनीवत् (१४१३०२), अर्धमागधी को आर्ष मानकर उसका विवेचन नही किया। फिर पंशाची का विवेचन करके कहा शेयं शौरसेनीवत 33यों की निकासी के