पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/७३

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७० पुरानी हिंदी सूर्य (को, के ? ) देखकर कत ( के ) कर उत्तर-दिशा-आसक्त । नि.श्वास इव दक्षिण दिशा के मलय समीर प्रवृत्त (हुए)। कुमारसंभव के 'कुवेरगुप्ता दिशमुग्णरमी गन्तु प्रवृत्ते समय विलध्य । दिग्दक्षिणा गन्धवह मुखेन व्यलीकनि.श्वासमिवोत्ससर्ज' का भाव है। कर--में एलेप है । पलोइवि-प्रलोक्य, देखकर। विभक्तियो की बेकदरी होने से यह वीच मे आ गया है और सूर और कत दूर पड़ गए हैं। पसरिय धूम कापण-सिरि सोहइ अरुण-नव-परलव परिणद्ध । न रत्तसुय-पावरिय महु-पिययम सबद्ध । कानन (को) श्री सोहै अरुण नव पल्लवो से ढकी। मानो रक्ताशुक (लाल कपड़े) से लिपटी मधु (चैत्र, वसत) (रूपी) प्रियतम से सबद्ध । 'विवाह मे 'सूहा सालू' पहनते ही है। पावरिय-प्रावृत्त ढकी हुई। (१०) सहयारिहि मजरि सहहि भ्रमर-समूह-सणाह । जालाउ व मयणानलह पवाह ॥ सहकार (आम) की मजरी सोहती हैं भ्रमर-समूह (से) सनाथ । ज्वालाएं इव मदनानल की प्रसरित-घूम-प्रवाह । यहाँ सहहि का अर्थ सहती है नही हो सकता, सोहहिं का अर्थ बंटता है। सो के ओ की एक माना मानने से काम चलाया है। देखो (२२), (४१) । (११) दमयती के वस्त्र पर नल उसे छोडते समय अपने रुधिर से लिख गया था- वड-रुक्खह दक्षिण-दिसिहि जाइ विदभहि मग्ग । वाम-दिसिहि पुण कोसलिहि जाह रुच्चइ तहिं लग्गु ।। वड (के) रुख की, दक्षिण दिशा मे, जाय, विदर्भ को, मार्ग। वाम दिशा मे पुन , कोसल को, जहाँ, रुच, तहां, लग। ( जिधर चाहे उधर जा) । जहिं तहि = जिसमे तिसमे ।