पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/८

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पुरानी हिंदी ३ प्रात ये ही पुगने नमूने हैं । जैन मूत्रो की भाषा मागधो या अर्द्धमागधी कही गई है। उमे आप प्राकृत भी कहते हैं। पीछे में प्राकृत वैयाकरणों ने मागधी, अर्धमागधी, पैशाची, शौरसेनी, महाराष्ट्री प्रादि देश भेद के अनुसार प्राकृत भापानो को छौट की, किंतु मागधीवाले वहने हैं कि मागधी ही मूल भाषा है जिमे प्रथम कल्प के मनुष्य, देव और ब्राह्मण बोलते थे । जिन पुराने नमूनो का हम उल्लेख कर चुके हैं वे देश-भेद के अनुसार इस नामकरण मे किसी एक मे ही प्रत त नहीं हो सकते । बौद्ध भापा सस्कृत पर अधिक महारा लिए हुए है, निक्यों तथा लेखो की भापा भी वैनी है । शुभ प्राकृत के नमूने जैन नूत्रो मे मिलते है । यहाँ दी. बाने और देख लेनी चाहिएँ । एक तो जिम किनो ने प्राकृत का व्याकरण बनाया, उसने प्राकृन को भापा समझकर व्याकरण नहीं लिखा । ऐनो साधारण वातो छोडकर कि प्राकृत में द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति नहीं है, "सारे प्राकृत व्याकरण केवल संस्कृत शब्दो के उच्चारण मे क्या क्या परिवर्तन होने इनकी परिमच्यामूची मात्र है। दूसरी यह कि सस्कृत नाटको को प्राकृत को शुद्ध प्राकृत का नमूना नही मानना चाहिए । वह पडताऊ या नकली या गटी हुई प्राकृत है, जो सम्वृत में मसविदा बनाकर, प्राकृत व्याकरण के नियमो ने त को जगह य और क्ष गो जगह ख, रखकर, मांचे पर जमाकर, गटी गई है ! वह मम्कृत महाविरो का नियमानुसार किया हुया रूपातर है, प्राकृत भाषा नहीं । हाँ, भान के नाटको को प्राकृत शुद्ध मागधी है । पुराने काल को प्राकृत रचना, देशभेद के नियत हो जाने पर, या तो मागधी मे हुई या महाराष्ट्री प्राकृन में, पोग्नेनी 'पैशाची आदि केवल भाषा में विरल देशभेद मान रह गई, जमातिप्रासन व्याकरणो मे उनपर कितना ध्यान दिया गया है, इसने स्पष्ट है। मागधी अर्धमागधी तो आप प्राकृत रहकर जैन मूत्रो में ही बन हो गई, यह भी एक तरह को छदस् की भापा बन गई। प्राकृत व्याकरणो ने महाराष्ट्री का पूरी तरह विवेचनकर उमी को आधार मानकर, शीग्मेनी प्रादि के अनरो उमो १. हेमचन्द्र ने 'जिगिदारा वारणी' को देगोनाममाना के प्रारम में 'असेसम सपरिणामिणी' कहकर वदना करते हुए श्या अवतरण दिया है- देवा देवी नरा नारी शवराश्चापि शार्वरीम् । तिर्यञ्चोऽपि हि तैररची मेनिरे भगवद्गिरम् ॥ प्रवठा