पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/८३

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दूसरा भाग सोमप्रभ और सिद्धपाल की रचित कविता गायकवाड सरकृत सिरीज पृ० ७७, (१) कुमारपालप्रतिबोध, एक छंद (३७) कुल कलकित मलिउ माहपु। मलिणीकय सयणमुह दिन्नु हत्थु नियगुण कडप्पह जग ज्झपियो अवजसिरण वसरण विहिय सन्निहिय अप्पह । दूरह वारिउ भद्दु तिणि दक्किउ सुगइदुवारु । उभयभवुटभडदुक्ख करु कामिउ जिरण परदार । यह सप्तपद छद उस समय की रचना मे बहुत मिलता है । अत के दो चरण छप्पय के हैं। परदारगमन को निंदा मे कवि कहता है-कुल, कलकित (किया ), मल दिया, माहात्म्य, मलिन किया, सज्जनो का मुंह, दोना, हाथ, निज गुण समूह को, (= धक्का देकर निकाल दिया ), जग, झप ( गल+ ), हत्था (ढक दिया), अपजस से, व्यसन, विहित (किए) अन्निहित, अपने, दूर से, निवारण किया, भद्र, उसने ढंक दिया, सुगति का द्वार, दोनो भव ( यह लोक और परलोक ) में उद्भट दुखो की करनेवाली कामित की ( = चाही) जिसने, परदारा । सयण-सजन, मिन, हिं० साजन । दिन्नु हत्य-दिया, गलहस्त दिया, अर्धचद्र दिया, निकाल बाहर किया देखो उपर (१६)। कडप्प--? समूह, झप = घूमना, ढकना या जीतना । इसी से मिलता हुआ एक श्लोक सोमप्रभ की सूक्तिमुक्तावली (सिंदूरप्रकरस्तोत्र) मे है- दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोने मयीकूर्चकं, चारित्र्यस्य जलालिगुणगणारामस्य दावानल ।