पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/९

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पुरानी हिंदी के अपवादो की तरह लिखा है। या यो कह दो कि देश-भेद से कई प्राकृता होने पर भी प्राकृतसाहित्य को प्राकृत एक ही थी। जो पद पहले मागधी का था वह महाराष्ट्री को मिला। वह परम प्राकृत और सूक्ति रत्नो का सागर कहलाई । राजाओ ने उसकी कदर की। हाल (सात वाहन) ने उसके कवियो की चुनी हुई रचना की सतसई बनाई, प्रवरसेन ने सेतुबध से अपनी कीर्ति उसके द्वारा सागर के पार पहुँचाई, वाक्पति ने उसी मे गोडवध किया, किंतु यह पडिताऊ प्राकृत हुई, व्यवहार की नहीं। जैनो ने धर्मभाषा मानकर' उसका स्वतन्त्र अनुशीलन किया और मागधी की तरह महाराष्ट्री भी जैन रचनाओ मे ही शुद्ध मिलती है। और दो के होने पर भी जैसे सस्कृत का 'श्लोक' अनुष्टुप् छदो का राजा है, वैसे प्राकृत की रानी 'गाथा' है, लवे छद प्राकृत मे आए कि सस्कृत की परछाई स्पष्ट देख पडी। प्राकृत कविता का प्रासम ऊँचा हुना। यह कहा गया है कि देशी शब्दो से भरी प्राकृत कविता के सामने सस्कृत को कोन सुनता है और राजशेखर ने, जिसकी प्राकृत उसकी सस्कृत के समान ही स्वतन और उद्भट है, प्राकृत को मीठी और सस्कृत को कठोर कह डाला। शौरसेनी और पैशाची ( भूतभाषा) इन प्राकृतो के भेदो मे से हमे शौरसेनी और पैशाची का देशनिर्णय करना है । यद्यपि ये दोनो भाषाएँ मागधी और महाराष्ट्री से दव गई थी और इनका विवेचन व्याकरणो मे गौण या अपवाद रूप से ही किया गया है तथापि १. ललिए · महुरक्खरए जुवईयणवल्लहे ससिंगारे । सन्ते पाइयकव्वे को सक्क्ड सक्क्य पढिउ ।। (वज्जालग्ग, २६) [ललित, मधुराक्षर, युवतीजनवल्लभ, सशृगार प्राकृत कविता के होते हुए. सस्कृत कौन पढ सकता है ?] २. परुसा सक्कप्रवधा पाउअवधो वि होइ सुउमारो। पुरुष महिलाण जेंतिममिहन्तर तेत्तियमिमाण ॥ (कर्पूरमजरी) [ संस्कृत की रचना पहप और प्राकृतरचना सुकुमार होती है, जितना पुरुष पौर स्त्रियो मे अतर होता है उतना इन दोनो मे है। ] ३. अगले लेखो मे इस विषय पर कुछ और प्राता जायगा। 1