पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/९३

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६० पुरानी हिंदी मधुरता उन्हें प्रिय थी। विदेशी मुसलमानो ने प्रागरे दिल्ली सहारनपुर मेरठ की पडीभापा को 'खडी' बनाकर अपने लश्कर और समाज के लिये उपयोगी बनाया, किसी प्रातीय भापा से उनका परपरागत प्रेम न था। उनकी भापा सर्वसाधारण या राष्ट्रभाषा हो चली, हिदू अपने अपने प्रात की भापा को न छोड सके । अव तक यही बात है। हिंदू घरों की बोलो प्रादेशिक है, चाहे लिखापढी और साहित्य की भाषा हिंदी हो, मुसलमानो मे बहुतो की घर की बोली खडी बोली है । वस्तुत उर्दू कोई भापा नही है, हिंदी की 'विभापा' है, किंतु 'हिदुई भाषा बनाने का काम मुसलमानो ने बहत कुछ किया, उसकी सार्वजनिकता भी उन्ही की कृपा से हुई, फिर हिंदुनो में जागति होने पर उन्होने हिंदी को अपना लिया । हिदी गद्य की भापा लल्लूलाल के समय से प्रारभ होती है, उर्दू गद्य उससे पुराना है, खडी बोली कविता हिंदी मे नई है, अभी अभी तक ब्रजभापा बनाम खडी बोली का झगड़ा चल ही रहा था, उर्दू पद्य की भापा उसके बहुत पहले हो गई है। पुरानी हिदी गद्य और पद्य---खडे रूप मे- मुसलमानी है हिद कवियो का यह सप्रदाय रहा है कि हिंदू पानी से प्रादेशिक भाषा कहलवाते थे और मुसलमान पात्रो से खडी बोली। (१) ना० प्र० पत्रिका भाग १, पृष्ठ २७८-६ मे राव अमरसिंह के सलावत खां के मारने के दो कवित्त उद्धृत है। वहाँ इस विषय की टिप्पणी भी दी है । वहां शाहजहाँ की उक्ति का कवित्त तो इस प्रकार की भाषा मे है कि- वजन महि भारी थी कि रेख में सुधारी थी हाथ से उतारी थी कि सांचे हूँ मे ढारी थी। सेख जी के दर्द माँहि गर्द सी जमाई मर्द पूरे हाथ साँधी थी कि जोधपुर संवारी थी। हटक गई गट्टी सी गटक गई फेफडा फटक गई आँको बाँकी तारी थी। शाहजहाँ कहे यार सभा मांहि बार बार अमर की कमर मे कहाँ की कटारी थी। कवि की अपनी उक्ति ऐसी है- साही को सलाम करि मार्यों थो सलावत खाँ दिखा गयो मरोर सूर वीर धीर पागरो। हाथ में