पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७८
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

७८ [प्रतापनारायण-ग्रंथावलो मतकर्य है। हम कह सकते हैं जो उसे कोई काम नापसंद होता तो उसे पहिले ही से नाश कर देता! फिर वह केवल एक जाति, एक संप्रदाय, एक देश, एक ही स्वभाव वालों का ईश्वर नहीं है, बरंच छोटे बड़े भले बुरे सभी उसके हैं। सभी का भरण पोषण उसे करना है। पतितपावन अधमोढारण आदि नामों ही से सिद्ध है कि वह उन पर भी दया करता है । इसके अतिरिक्त जितने काम संसार के बुद्धिमानों ने बुरे ठहराये हैं उनमें से एक न एक सभी में रहता है ( कौन बंदा है खुदा का जो गुनहगार नहीं)। इस रीति से सभी लोग उसकी आज्ञा और सहाय से बंचित रहे जाते हैं। और ऐसा न है म हो सकता है । फिर क्यों कर कहैं कि कोई कुछ उसकी आज्ञा बिना करता है। क्या संसार में कोई ऐसा भी है जिसका ईश्वर, जोवन, वस्त्र, अन्न, सुख, शांति, क्षमा, दया, भक्ति इत्यादि कभी भी न देता हो ? फिर उसकी सहाय से कौन बंचित कहा जा सकता है ? खं. ३, सं. ९-१० ( १५ नवंबर-दिसंबर ह• सं० १) गगाजी इन तीन अक्षरों से हमारे भारत को कितना संबंध है, यह सोचने बैठते हैं तो हमारा मन हिमालय से भी लंबा चौड़ा, और विचारशक्ति तो गंगा नही बरंच महा सागर को लजित करने वाली हो जाती है। आहा! गंगा और भारत के संबंध को पूर्ण रूप से लिखना कोई हंसी खेल है ? ऐसा भी कोई हिंए है जो दिन भर में इस नाम को, मन वा वचन से, न्यूनातिन्यून एक बार न लेता हो ? ऐसा भी कोई काम है जिसमें गंगा जी का कुछ न कुछ प्रत्यच्छ वा प्रच्छन्न लगाव न हो? ऐसा भी किसी विषय का कोई ग्रंथ है जिसमें किसी न किसी रीति से यह अक्षर न आए हों ? नहीं, नहीं, कदापि नहीं ! भारत की तो गंगा प्राण हैं, शोभा हैं, बरंच सर्वस्व हैं ! परमोत्तम पुरुषों के शिरोमुकुट हमारे मुनीश्वरों को ब्रह्म प्राप्ति की बड़ी सुविधा गंगा से "गंगातरंग- कणीकरशीतलानि विद्याधराभ्युषितचारुशिलातलानि · ।" कहाँ तक कहिए ब्रह्मद्रव, देव नदी इत्यादि नामों हो से टपकता है कि रिषियों को जगत् से अनिच्छा होने पर भी गंगा से ममत्व था। इधर हमारे कलियुग की मूरत, पराई बहू बेटियों पर, लोक परलोक निछावर करने वालों को भी गंगा जी में कितना सुभीता लगता है कि बस 'जानि जाय जो नाननिहारा'। अब कहिये, गंगा जी सभी की अभीष्टदायिनी नहीं हैं कि सैकड़ों मन खाद्य वस्तु गंगा जल से सीची जाती है, सहस्त्रों ब्राह्मण गंगा तट पर सुख से जीवनयात्रा करते हैं, लाखों जीवजंतु गंगा में पलते हैं। फिर क्यों न गंगा माता