पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१०६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंपावली वो केवल पूर्व-सचित द्रव्य ही से पुरानी साख बांधे बैठे हैं। ऐसा कोई कार ही नहीं जो सरकार ने निज हस्तगत न कर लिया हो। इस हालत में विचारे छुटभइये लाइसेंस और चुंगी के डर से, पहिले तो कुछ करी नहीं सकते, यदि कुछ करें तो तीन खाते हैं तेरह की भूख बनी रहती है ! हमारा कानपुर जो अब से दस वर्ष पहिले था, अब नहीं रहा। पह वो रोज सुन लीजिए कि बाज फलाने बिगड़ गये, पर यह सुनने को हम मुद्दत से तरसते हैं कि इस साल फलाने इस काम में बन बैठे। जब आमदनी के इन उत्तम और मध्यम मार्गों की यह दशा है तो सेवा-वृत्तियों का कहना ही क्या ? सैकड़ों पढ़े लिखे मारे २ फिरते हैं । बिना सिफारिश कोई सेंत नहीं पूछता। कुछ मिडिल क्लास की पख, कुछ बेकदरी के बायस से बिचारे बाबू लोग महंगी कैसे मजदूर उतराते फिरते हैं। कहार ढूंढ़ो तो मुश्किल से मिले, नांच पांच के लिए वेश्या बड़े नखरे से आवे, पर हमारे 'इन्लाइटेंड' भाई से झूठ-मूठ भी कहि देव कि फलानी जगह एक हेड की जरूरत है, बस, एक के बदले पचास, चुगा फलकारते, मुरैठा सम्हालते मौजूद है ! अगले लोग जिस नौकरी को निकृष्ट वृत्ति और शूद्र का काम समझते थे उसकी लालसा बड़े २ बाजपेयी ऐसी रखते हैं जैसी मतवाले भाई मुक्ति को न रखते होगे। वह नौकरी जिनको महादेव जी की दया से मिल भी गई है उनको बबुआई की ठसक मारे डालती है। सुनते हैं, आगे चार रुपया महीने का नौकर अपने कुटुब के सिवा दो चार और आश्रितों का भरण- पोषण कर लेता था, पर हमको इसका निश्चय क्यों कर हो, जब देखते हैं कि मौ २ दो २ सौ के नौकर भी, राम झूठ न बुलावै, सौ पीछे पचहत्तर तो अवश्य होगे जिनको हजरत गालिब का यह वाक्य अनुभूत सिद्धांत है- बस कि लेता हूँ हर महीने कर्ज और रहती है सूद की तकरार । मेरी तनख्वाह में तिहाई का ___ हो गया है शरीक साहूकार ॥ तो भी धन्यवाद है कि खितिहरों और लालों से फिर भी बाबू जी बाबू तो कहाते हैं। हां, प्रोहत, पाधा, पंडा और गयावाल इत्यादि की दशा कुछ अच्छी कह सकते थे, क्योंकि उन्हें बेमेहनत घर बैठे लक्ष्मी आती है और हमारी उपर्युक्त लोकोक्ति यो भी ठीक होती है कि- "उत्तम भिक्षा वृत्ति है, फिर बबुआई जान, अधम बमिज वैपार है, खेती खोंटि निदान" । पर नहीं, जब यह विचार होता है कि कृषक, व्यापारी अथवा सेवकों की यही गति रही तो कहां से किसी को कुछ दे सकेंगे ? बस, अब हमारा यह सिद्धांत सत्य होने में किसी को कुछ संदेह न होगा कि जितना दरिद्र मुसलमानों के सात सौ वर्ष के प्रचंड शासन द्वारा न फैला था, नतना, बरंच उससे अत्यधिक, इस नीतिमय राज्य में