पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१०९

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देशी कपड़ा ] फिर "सारे औगुन छिपत है, लछमिनियों की ओट", कोन का डर है। इस दो अक्षर के शब्द से लोग ऐसा गिधे हैं कि जिससे कह दो, सो ना (सोओ मत), देखो कैसा सीक पांव होता है, कोई तुम्हारा आश्रित है जो डर के मारे तुम्हारी भाशा मानेगा, पर कभी २ कोई २ आज्ञा सुन के भीतरी भीतर पच जाता है, पर रात को कुछ काम देर तक करने के पीछे कह दीजिए-सो ना, (सो रहो न) देखो कैसा मगन हो जायगा ।। खं० ·, सं० १२ (१५ फरवरी ह० सं० २) देशी कपड़ा मानव जाति का, खाने के उपरांत, कपड़े के बिना भी निर्वाह होना कठिन है । विशेषतः सम्य देश के भोजनाच्छादन, रोटी कपड़ा, नानो नकफ इत्यादि शब्दों से ही सिद्ध है कि इन दोनों बातों मे यद्यपि खाने बिना जीवन-रक्षा ही असंभव है, पर कपड़े के बिना भी केवल प्रतिष्ठा ही नहीं, बरंच आरोग्य, एवं असंभव नहीं है कि प्राण पर भी बाधा आवै। पर खेद का विषय है कि हम अपने मुख्य निर्वाह की वस्तु के लिए भी परदेशियों का मुंह देखा करें। हमारे देश की कारीगरी लुप्त हुई जाती है, हमारा धन समुद्र पार खिचा जाता है इत्यादि विषय बहुप्त सूक्ष्म हैं, उस पर जोर देने से लोग कहेगे कि एडीटरी को सनक है, कविता की अत्युक्ति है, जिमि टिट्टिभ खग सुतै उताना' की नकल है; पर हमारे पाठक इतना देख लें कि जब हमको एक वस्तु उत्तम चिरस्थायिनी और अल्प मूल्य पर मिलती है तो बाहर से हम वह वस्तु क्यों लें। गृहस्थ का यह धर्म नहीं है कि जब एक रुपया से काम निकलता है तब व्यर्थ डेढ़ उठावै । बिलायती साधारण कपड़ा नैनसुख मलमल इत्यादि तीन आने से पांच आने गज मिलता है, उसके दो अंगरखे साल भर बड़ी मुश्किल से चलते हैं,पर उसके मुकाबिले देशी कपड़ा ( मुरादाबादी चारखाना, कासगंजी गाढ़ा इत्यादि ) तीन आने गज का । कपड़ा यद्यपि, अरज कम होने के कारण, कुछ अधिक लगता है, पर उसके दो अंगरखे तीन वर्ष हिलाये नहीं हिलते। बाबू लोग यह न समझें कि अंग्रेजी फैशन का कपड़ा नहीं मिलता, नही, बहुत से अच्छे अंगरेज भी अब यही पहिनते हैं । शोकीन लोग यह भी खयाल न करें कि देशी कपड़े में नफासत नहीं होती, नही, ढाके की मलमल, भागलपुरी टसर और मुर्शिदाबाद की गई अब अंगरेजी कपड़े को अपने आगे तुच्छ • "निबंध नवनीत' से उद्धृत ।