पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
८८
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

८८ [प्रतापनारायण-प्रयावलो समझती हैं। अब ऐसा कोई तरह का कपड़ा नहीं है जो न बनता हो, और कुछ ही दिन लोग उत्साह दिखलावें तो न बन सके । प्रयागराज में केवल इसी की एक कोठी मौजूद है । हमारे कानपुर के सौभाग्य से श्रीयुक्त लाला छोटेलाल गयाप्रसाद महोदय ने भी देशी तिजारत कंपनी खोली है । यदि अब भी इस नगर और जिले के लोग देशी कपड़े को स्वयं पहिनने और दूसरों को सलाह देने में कसर करें तो देश का अभाग्य -समझना चाहिए। हम और हमारे सहयोगीगण लिखते २ हार गए कि देशोन्नति करो, पर यहाँ वालों का सिद्धांत है कि 'अपना भला हो देश चाहे चूल्हे में जाय', यद्यपि जब देश चूल्हे में जायगा तो हम बच न रहेंगे। पर समझना तो अश्किल काम है ना । सो भाइयो, यह तो तुम्हारे ही मतलब की बात है। आखिर कपड़ा पहिनोहीगे, एक बेर हमारे कहने से एक २ जोड़ा देशी कपड़ा बनवा डालो। यदि कुछ सुभीता देख पड़े तो मानना, दाम कुछ दूने न लगेंगे, चलेगा तिगुने से अधिक समय । देशी लक्ष्मी और देशी शिल्प के उदार का फल संतमेंत । यदि अब भी न चेतो तो तुमसे ज्यादा भकुआ कोन ? नहीं २ हम सबसे अधिक, जो ऐसों को हितोपदेश करने में व्यर्थ जीवन खोते हैं !. खं० ३, सं० १२ ( १५ फरवरी ह० सं० २) दुनिया अपने मतलब की है यद्यपि संसार में सदा बहुत ही थोड़े ऐसे भी पुरुष रत्न होते हैं, जो निज की लाभ हानि का विचार न करके, ईश्वर तथा स्वदेश ही के लिए सर्वस्व निछावर कर देते हैं। पर निश्चय ऐसे अलौकिक लोग संसारी नहीं हैं, नहीं तो यह जगत केवल स्वार्थ पर है, और कुछ नहीं । जिनको आप समझते हैं कि धर्मात्मा है, उनके हृदय को टटोलिए तो अधिकतः यही पाइएगा कि मुक्ति का लालच, वा नर्क का डर, वा संसारिक कीर्ति की चाह इत्यादि के मारे, अपनी समझ भर, सत्प्राप्ति का यत्न मात्र कर रहे हैं, धर्म वर्म कुछ भी नहीं है। एक प्रकार का भय तथा लोभ वह भी है। यदि यह निश्चय न हो कि संसार परमार्थ उसी की दया से बनते हैं तो कदाचित कोई परमेश्वर का नाम भी न ले। फिर संसार की स्वार्थपरता में क्या संदेह है ? माता पिता की प्रीति बड़ी प्रसिद्ध है। पर आप को क्या नहीं मालूम कि वे समझते हैं, हमें बुढ़ापे में खाना पीना • "निबंध-नवनीत से उद्धृत ।