पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१११

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दुनिया अपने मतलब की है ] इसी से मिलेगा। हमारी सेवा यही करेगा । हमारा नाम यही चलावैगा । जमराज को रिशवत इशवत देके नर्क जातना से यही बचावैगा। अब कहिये, यह प्रीति है वा स्वार्थपरता ? हम आप से क्यों प्रीति करते हैं ? आप की विद्या बुद्धि, बचन लालित्य वा सौंदर्य से हमारा चित्त प्रसन्न होता है अथवा आप के धन बल इत्यादि से हमें सहायता मिलती है। हमें आप क्यों चाहते हैं ? क्योंकि हम आप की हां में हो मिलाया करते हैं। जरा आप की भौंह चढ़ती है तो चीते की तरह मनाया करते हैं । भरा २ सी बात पर आप को चन्द्रमा सूर्य इंद्र बरुण करण व हातिम बनाया करते हैं । धिक ! यह भी प्रेम है ? बहुतेरे परस्पर कोई उपकार नहीं चाहते तो ठेलुहापन में दिन ही काटने को मित्र बन जाते हैं। प्रजा को दूरदर्शी राजा इसलिए राजी रखते हैं, इनको हंसाय खेलाय के दुहते रहेंगे। प्रजा राजा को इस हेतु प्रसन्न रखती है कि हमें पालन करेगा। जहां तक आँख फैला के देखिए, छोटे बड़े, दरिद्र, धनो, मूर्ख, विद्वान, सब का यही सिद्धांत है कि जैसे बने 'स्वकार्य साधये द्विद्वान् कार्यभ्रंशों हि मूर्खता।' उदाहरण देने लगें तो लाख करोड़ की नौबत पहुंचे। हम अपने पाठकों को केवल समझाये रखते हैं कि जितने प्रकार के लोगों को, जितने काम करते देखें, कभी यह धोखा न खायें कि इसमें कर्ता को निज स्वार्थ से संबंध नहीं है। यदि आप निरे सच्चे, निरे सोधे, निरे न्यायी, निरे सज्जन हैं तो रिषियों की भांति बनवास स्वीकार कीजिए। यदि आप हमारी तरह अधकचरे हैं कि प्रेम सिद्धांत भी नहीं छोड़ना चाहते, काइयाँपन भी नहीं सीखा चाहते और निर्वाह भी चाहते हैं, तो जन्म को रोइए । आशा छोड़िये कि कभी आप के शेखचिल्ली जैसे मनोर्थ पूरे होगे। पर हां, यदि आप गुरूघंटाल, बिरगिट के छटे, सब गुनभरी बैतरा सोंठ हो, धर्म कर्म स्वर्ग मुक्ति देवता पितर इत्यादि को धोखे का टट्टी बना के, पराया धन, पराया बल, पराया यश मट्टी में मिला के येन केन प्रकारेण अपनी टही जमा सकते हों। उस्तादी यह है कि भेद न खुलने पावै । तभी आप सुखपूर्वक जीवन यात्रा कर सकते हैं। क्योंकि दुनियाँ अपने मतलब की है । आप अपना मतलब गांठने में जितने पक्के होगे उतना ही दुनियां के मजे आप को मिल सकते हैं । खं० ४ सं. १ (१५ अगस्त ह० सं० ३)