पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/११३

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मिडिल क्लास ] लगना शरीर के लिए अनिष्ट है। तो अपने कल्याण की प्रगाढ़ेच्छा न होना, आत्मा के लिये, क्योंकर श्रेयस्कर कहें । एक महात्मा का वचन है कि 'वे लोग धन्य हैं जो धर्म के लिये भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जायंगे'। सो तृप्त होना शुष्क ज्ञानरूपी स्वर्णदंड से कदापि संभव नहीं, क्योंकि सोना स्वयं खाद्य वस्तु नहीं है। ऐसे ही ज्ञान भी केवल सुखद मार्ग का प्रदर्शन मात्र है, कुछ सुखस्वरूप नहीं है। बरंच बहुधा दुःखदायक हो जाता है। पर हां, ईश्वर के अमित अनुग्रह से, स्वयं रसमय, निश्चित, अलौकिक और अकृत्रिम प्रेम भी, हमारे हृदय क्षेत्र में रक्खा गया है, जिसके किचित संबंध से हम तृप्त हो जाते हैं। आंतरिक दाह का नाश हो जाता है। ईश्वर तो ईश्वर हो हैं, किसी सांसारिक वस्तु का भणस्थाई और कृत्रिम प्रेम कैसा आनंदमय है कि उसके लिए कोटि दुःख भी सुख सह्य हो जाते हैं, और प्रेम प्रात्र की प्राप्ति तो दूर रही उसके ध्यान मात्र से हम अपने को भूल के आनंदमय हो जाते है। जैसे यावत मिष्ठान का जनक इक्षुदंड है वैसे ही जितने मानंद हैं सबका उत्पादक प्रेम है। तत्क्षण शांति और पुष्टिदाता यह रसमय प्रेम ही है, जिसकी केवल एकदेशी तुच्छातितुच्छ सादृश्य गन्ने से दे सकते हैं, यद्यपि वास्तविक और यथोचित सादृश्य के योग्य तो अमृत भी नहीं है । प्रिय पाठक! तुम्हारी आत्मा धर्म की भूखी है कि नहीं? यदि नहीं है तो सत्संग और सद्ग्रंथावली अवलोकन द्वारा इस दुष्ट रोग को नाश करो। हाय २ आत्मश्रेय के लिए व्याकुल न हुआ तो चित्त काहे को पत्थर है ! नहीं, हमारे रसिक अवश्य हरि रस के प्यासे हैं। उनसे हम पृष्ठते हैं क्यों भाई, तुम अपने लिए रुक्ष स्वर्ण दंड को उत्तम समझते हो अथवा रसीले पौडे को? खं० ४ सं० २ (१५ अगस्त और सितंबर ह. सं. ३) मिडिल क्लास जो लोग सचमुच विद्या के रसिक हैं उन्हें तो M.A. पास करके भी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि विद्या का अमृत ऐसा ही स्वादिष्ट है कि मरने पीछे भी मिलता रहे तो अहोभाग्य ! पर जो लोग कुछ क, म, घ, सोख के, पेट के धंधे से लग जाना ही इति- कर्तव्यता समझते हैं, उनके लिए यह मिडिल की भी ऐसी छूत लगा दी गई है कि झोबा करें बरसों! नहीं तो इन बिवारे दस २ रुपया की पिसौनी करने वालों को कब जहाज पर चढ़ के जगज्जात्रा करने का समय मिलता है जो जुगराफिया रटाई जाती है ? कौन दिल्ली और लखनी के बाहशाह बैठे हैं जो अपने पूर्वजों का