पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२२

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दिवाली में उपासना हे परमानंदमय ! प्रेमस्वरूा ! 'प्राणप्रिय' तुम्हारे प्रेम की मलक मात्र से हमारे हृदय मंदिर की चिर संचित पाप मलिनता एक साथ दूर होती है। हम चाहे कोटि यत्न करें तो भी न हो सके, पर तुम्हारी सहज अनुग्रह से हमारा आत्मभवन स्वच्छ हो जाता है, प्रकाशपूर्ण हो जाता है और नवीन शोभायुक्त हो जाता है। हे परम सुंदर ! तुम्हारे सान्निध्य से तदीय समाज को नित्य त्योहार, सदा दिवाली ही रहती है। हमारी सांसारिक पिता की तो खोल २ हो जाती है। तुम्हारे आगे सारा जगत लड़कों का घिरौंदा सा दिखाई देता है। तुम्हारे भक्ति पथ में बाधा करने को संसार चाहे कोटि रूप धरे पर तुम्हारे ज्ञानी को खिलौना ही सा जान पड़ेगा। अहा! तुम्हारे गुणानुबाद में वुह मिठाई है जिसके स्वादु की अपेक्षा अमृत भी तुच्छ है । लक्ष्मीपते ! तुम्हारे सच्चे पूजक क्या कभी सार्वभौमिक राजश्री पर भी ललचाय सकते हैं ? नाथ ! जिन्होंने तुम्हारी अलौकिक लीला देखी है, तुम्हारे अकथनीय खेल देखे हैं, वे केवल तुम्हारे साथ हार जाने को अपना सर्बस्व दांव पर लगा देंगे। उन्हें तो केवल तुम्ही लुभा सकते हो। आहा! जगत में चोर, जुवारी, और इससे बुरा कहला कर भी तुम्हारे साथ तन मन धन सब हार बैठने में वुह आनंद है जिसके आगे त्रैलोक्य की जीत भी तुच्छ जंचती है ! प्रभो! तुम्हारी सभी बातें अतक्र्ष हैं । यद्यपि तुम सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ हो पर हमारा विश्वास यह है कि तुम प्रेमियों के साथ प्रेमधूत में हार के, अपनी प्रभुता छोड़ के उनसे स्नेह करते हो । अतः हे विचिन्त्य, हम तुम्हारे शरणापन्न होते हैं! शांतिः शांतिः शांतिः । खं० ४, सं० ३ ( १५ अक्टूबर ह. सं०३) दिन थोड़ा है, दूर जाना है, यहाँ ठहरूं तो मेरा निबाह नहीं है परमाश्चर्यमय परमेश्वर जिसे दुतकार देना चाहते हैं उस अभागे की पाषाण सदृश वृद्धि में वेद शास्त्र पुराणादि के महा २ वाक्य भी अपना आधिपत्य ( असर ) नहीं कर सकते। क्योंकि उसे तो अपने नर्कमय पाप जीवन में ही जन्म बिताना है। उसके चित्त में सद्पदेश क्यों कर चुमै । पर जिसे अपनाते हैं उसके लिए साधारण लोगों की साधारण १. शुभ लक्षणमबो शक्ति का स्वामी ।