पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२३

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दिन थोड़ा है, दूर जाना है. ] १.१ बातें भी साधारण तथा अमृतमयी शिक्षा का काम दे जाती हैं। पाठक ! यदि तुम अपनी आत्मा का सच्चा हित चाहते हो तो अपनी विद्या, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, तीर्थ अतादि का अभिमान छोड़ो । नम्र भाव से, बकृत्रिम भाव से, प्रेम भाव से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें अपना । एक सच्चा आख्यान जिसको हुए अभी सौ वर्ष भी नहीं बोते, जिस महात्मा के पौत्र प्रपौत्र अभी भारत में विद्यमान हैं, उनको कथा चित्त लगा कर सुनो तो निश्चय हो जायगा कि ईश्वर को इच्छा पर अपना जीवन छोड़ दो तो आश्चर्य नहीं कि वह तुम्हें सहज में अपनाये। एक तीस बत्तीस वर्ष की अवस्था का युवा पुरुष, जिसको सांसारिक भोग विलास छोड़, न कोई चिंता है न काम है, संध्या के कुछ ही पहिले के समय अपनी ऊंची अट्टालिका पर दो एक चंद्रबदनी, चंपकबरणो, नवयौवना बारलानाओं के साथ हाथ में हाथ दिए मदनमदमत्त टहल रहा है। उनके हाव भाव, उनकी मीठी २ बातें, उनकी सहज शोभा आदि में उसका चित्त मगन हो रहा है। नीचे गृह वाटिका है। वहां से नाना पुष्पों की सुगंध लखा कर पवन उसके आनंद को दुगुण कर रहा है। सूर्यदेव मानों कह रहे हैं कि हमारा उत्पात तुम्हारे मन को न भाता हो, तुम्हारी आनंद क्रीड़ा में बाधा करता हो, तो लीजिए हम अपने अस्ताचल की राह लेते हैं ; म मुखपूर्वक विहार करो। भला कोई भी निश्चय करेगा कि जिसे यौवन, धन, प्रभुता सभी चढ़ी बढ़ी है वुह कभी स्वप्न में भी संसार के भ्रम जाल से छूट सकेगा ? देव मंदिर समान घर कोई सहज में छोड़ देगा? लाखों की संपत्ति, अपनी चलते, दूसरों की छीन लेने को जी चाहता है, अपनी निज की तो किससे छुटती है। सुंदरता ने बड़े २ रिषि, मुनि, देवता, पीर, पैगंबरों का मन डिगाय दिया है । जिन्हें भोजनाच्छादन कठिनता से प्राप्त होता है उनकी भी लावन्यमयी मधुर छवि देख के राल टपकती है। मास दो मास को आय (आमदनी ) घर की कोई वस्तु देके खट्टे मीठे को जी चलता है। फिर भला जिसे भगवान ने सब भांति माना है, जिसे कोई कुछ कह नहीं सकता, जिसे मिथ्या प्रशंसक लोग बात २ पर धरममूरत धर्माओतार बनाते हैं, वुह और सुंदरी संसर्ग छोड़ दे ! वाह, यह तो धन पाने की शोभा है । हमारे बाबू साहब तो कन्हैया हैं। छोड़ दें ? क्या कोई कलंक है जो छोड़ दें ? पर नहीं, संसार की अनित्यता समझ ली वुह अपने आप ही को छोड़ देगा, धन, जन, कुटुंब और रमणी की तो क्या बात है। पर संसार की अनित्यता समझाने कौन आया। ऐसे इंद्रियलोलुपों के पास क्या कोई रिषि, मुनि, महात्मा उपदेश करने गए। फिर वुह जगनाल से कैसे छूट भागा । वुह अपनी प्यारी का रुखसार (किताब चेहरे की ) देखने में लगा हुवा है, कुछ भर्तृहरि जी का वैराग्य- शतक नहीं पढ़ रहा, जो घर छोड़ भागने को जी चाहे । पर नहीं, वैद्य वही है जो महारोगी को अच्छा करे। यदि शुद्ध मायाच्छन्न हृदय को न अपनाये तो पतितपावन अधमोसारण कसे । इसी इंद्रियारामत्व के कोच के बीच से निकाल के अपने प्रेमानंद में ले जायं तब न आश्चर्यमय कहलावें ! हमारे लिए भ्रमजाल है, उनकी दृष्टि में तो