पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

नारायण-ग्रंथावली मकड़ी का जाला मात्र है। जो मूल ही नाश कर सकता है उसे पत्र पुष्प नाश करना कौन बड़ी बात है । संसार का दृश्य जिसके सहज भ्रकुटिबिलास में लुप्त हो जाता है उसे सांसारिक कुबासना दूर करते क्या बिलंब । देखो न द्वार पर कोई कुछ कहता है। तनक सुनो तो क्या कहता है । ओह कहता कौन क्या है, जैसे बाबू साहब रसिया हैं वैसे ही उनके सेवक भी रसीले हैं । वही किसी से कह रहे, "जानी, आज तो कई दिन पोछे दर्शन दिए हैं । अरे साहब तुम्ही से कहते हैं। जरा गरीबों की भी..." हजूर क्या गजब रे यह रुबाई ?" भई ऐसी बातें हो रही हैं तो जरूर कोई परीजाद होगी। उः जैसे रसिक हैं वैसे ही उनकी प्रीति का आधार भी कोई ऐसी ही वैसी होगी। तो भी क्या जाने कभी २ गूदड़ में छिपे हुए लाल भी मिल जाते हैं । आओ छज्जे पर से झुक के देख तो लें। पर हमारी जान साहब क्या कहेंगी। अरे कहेंगी क्या। एक दिल्लगी है। कुछ हो देखना तो अवश्य चाहिए । कौन है, कैसी है, जिससे दरबान छेड़खानी कर रहा है। है है युवावस्था भी क्या ही वस्तु है ! जब कि नीम का फल भी मीठा हो जाता है तो यह तो स्त्री है । इसका रूप माधुयं किसी को भाय जाय तो क्या आश्चर्य । यद्यपि बहुत सुंदर नहीं है, न चंद्रमा का मुख है, म कमल से अरुण एवं बड़े २ और खंजरीट से चंचल नेत्र हैं, न चंपा का सा रंग है, न सगधसनी अलकावली है न वन और आभूषण ही सराहना योग्य हैं, केवल एक मैली सो धोती पहिने साधारण अहीरी है पर "लैला को मजन की आंखों से देखना चाहिए।" दर्बानी राम यदि प्रेममुग्ध न भी हों तो भी न्याय से यही कहेंगे कि 'खूबरू सबकी निगाहों में नहीं चंदा तुम । अपनी नजरों में तो हो रश्के गुले खंदां तुम ।' जानी, प्यारी, प्राण, इत्यादि शब्द केवल हंसी से नहीं किंतु मन से निकल रहे हैं । पर प्रेमपात्र की बेमुरौती तो प्रसिद्ध हो है । जब कि भगवान श्रीकृष्णचंद्र ही ने मथुरा से केवल तीन कोस आना अस्वीकार किया, गोपियों को विरह वेदना पर ध्यान न दिया, फिर साधारण स्नेहभाजनों का क्या कहना है । यदि आपने कभी कुछ दिन के लिये किसी को चाहा होगा तो जानते होगे कि इधर तो तन, मन, धन, धर्म, प्रतिष्टा, बरंच प्राण तक देने में नहीं-नहीं है और उधर से मुंह दिग्वाने में भी नहीं २ है। इसी न्याय से अनुमान कर लीजिए कि उस दही वाली ने द्वारपाल की खुशामद भरी बातों का क्या उत्तर दिया होगा। उत्तर कैसा, प्रेम प्रमादी की बात का उत्तर ही क्या। हजार मनुहार का जवाब इतना काफी हैं कि, 'पागल हो'। सच है, केवल मनःकल्पित आशाओं पर अपना सर्वस्व दूसरे पर निछावर कर देना ज्ञानवान का काम है ? अंततगत्वा बहुत पीछे पड़ने पर, दरंच लाज छोड़ पीछे दौड़ने पर, अपना पीछा छुड़ाने के लिये, आप नखरे के साथ कहती क्या है, "ना भाई ! हमको न छेड़ो ! दिन थोड़ा है, दूर जाना है। यहां टहरूं तो मेरा निर्वाह नहीं।" आहा, किस पवित्र समय में, किस धन्य घड़ी में, किस भाग्य भरे क्षण में, यह हृदय- स्पर्शी बचन निकले थे कि बस, हमारे प्रवास्पद वर्णनीय बाबूजी का चित और से और