पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२५

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दिन थोड़ा है, दूर जाना है." ] हो गया है। हां इतनी आयुष्य बीत गई, सहस्त्र वर्ष नहीं जिएंगे, दिन थोड़ा नहीं तो क्या है । बड़े २ महर्षि जन्म भर सददमादि करके जिस तत्व को नहीं जानते उसको प्राप्त करना परमावश्यक हई। आज तक कभी सच्चे जी से नाम स्मरण भी नहीं किया फिर किस बिरते पर कहें कि दूर जाना नहीं है ! इतने दिन धन, जन कुटुंगादि में फंसे रहे । व्यर्थ की आशा, निष्फल चिंता के अतिरिक्त कर क्या लिया । और अब भी रह के क्या बना लेंगे । राजर्षि भर्तृहरि और इब्राहीम अदहम ( बलख बुखारे के बादशाह ) मूर्ख न थे। कुछ तो मजा है जिसके लिए उन्होंने राज्य सुख को तुच्छ समझा था । यह सुख हमी को नहीं सुख देते, उन्हें भी फूलों की सेज काट खाती थी। पर नहीं, उनकी समझ में मा गया था कि 'कोटिन क्यों न करों इतमाम पं हो बिन राम छदाम के नाही'। बेशक अब यहां ठहरू तो मेरा निबाह नहीं है ! बस अब क्या है । बीबी अपने घर जावो । बीबी गई। मन ने कहा, क्या यही कपड़े पहिने रहोगे । बुद्धि ने उत्तर दिया, क्या वुह कपड़े देख के रीझंगे ? मन ने कहा, कुछ दो चार दिन के खाने को तो लेते चलो । बुद्धि ने कहा, 'जान को देत, अजान को देत, जहान को देत, मो तोह को देहै ।' ज्ञान ने कहा, दूर जाना है कुछ राह खर्च तो ले लो। प्रेमदेव ने कहा, राजा! तुम्हारे धन तो हम हैं ! तुम्हें क्या चिन्ता । अब सोच विचार को लात मारो। प्रेम की रेल पर चढ़ा है, उसे इंद्र का नन्दन बन भी दूर नहीं, वृंदावन तो इसी लोक में है। पांव चलने ही को बने हैं। यह परमेश्वर की बनाई जोड़ी ( दो जोड़े की बग्घी ), किसी काम में तो लावो । भगवान प्रेम की आशा पाते ही श्रद्धा, विश्वास, वैराग, उत्साह आदिक देव सनिकों के साथ 'अब यहां कदम न लो। बस चलो, चलो, चलो!' गाते हए, धर्म का डंका बजाते हए प्रयाण कर दिया। रेल तो हई नहीं कि चार दिन में सैकड़ों कोस हो आइए। और यदि हो भी तो यहां धन के नाते केवल लक्ष्मीपति का नाम है। बग्घी घोड़ा आदि भी रजोगुण के चिह्न हैं । वुह किम विरागशील को भाते हैं। बंगभूमि से बृजमंडल निकट भी नहीं है। फिर पयादे पांव अकेले इतनी दूर जाने पर कौन कटिबद्ध होगा? वही, जिस की बुद्धि धन से, कुटुंब से, अथवा धर्म से अधिक प्राणों को चाहती होगी। नहीं धन का लो मी कुटुंब का आशक्त एवं धर्म का संचयो भी अपनी बश में नहीं जाता। वुह लोभ के, मोह के, व परलोक भय के प्राबल्य से परबश है। इसी से जाते समय एक २ से मिलता है। एक पग आगे धरता है, फिर घर की ओर देखता, सभों को परमेश्वर के हाथ सौंपता है तो भी चित्त निश्चित नहीं होता। नाना भांति के निराश संकल्प विकल्प उठने हैं। पर प्रेम पथिक की मंगल यात्रा ऐसी नहीं है। शुक जैसे पिंजरे से उड़ जाता है, हरिण जसे आल से छूट जाता है, वुह फिर कर क्यों देखेगा। जो यह समझता है कि अभी तक जन समुदाय से मिले रहने में क्या मिल गया, वुह चलती बेर किसी से काहे को मिलेगा। परमात्मा जिस के साथ ही है, जो उन्ही की प्रेग्ना से उनकी ओर जा रहे हैं वे किस को चिन्ता करें। यावत चिन्ता तो प्रेमाग्नि में तभी स्वाहा हो गई जब 'दिन थोड़ा है' इस मंत्र का उच्चारण हुवा । संशय संसारियों के