पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली लिए हैं। यहां इस झंझट से क्या प्रयोजन । आनन्दमय से मिलने निकला है वुह कभी काहे को किसी रीति का शोच करे। शोच ही के बन्धन से मुक्त होने तो जाते हैं । बड़ा भारी बम्यासी दिन भर में १०, १५ कोस चलता है और कहता है चलते २ मर गए। परन्तु प्रेम यात्री यद्यपि कभी सवारी छोड़ के नहीं चला, तो भी उसकी चाल है । वुह प्यारे के घर का दूर नहीं मानता। उसे थकावट नहीं होती। उसे प्रेम बल है इस से प्रतिक्षण 'कहे है शोक कि चलिए कदम बढ़ाए हुए'। इधर रात्रि हुई, "बाबू न्यारू करने नहीं आए"। बाते होंगे। घंटा भर हुआ, दो घंटे हुए, प्रहर बीता । 'अब न आवेगे। जान पड़ता है किसी कमरे के मजे में फंस गए।' 'मोर भैया अब माते होंगे।' पहर दिन चढ़ा, दुपहर हुई, तीसरा पहर लगा है। 'काका कहो, 'भैया कहां,' 'बाबू कहाँ' का कोलाहल मच गया। यह तो नई बात है। यह कौन जाना है कि उनको नव जीवन प्राप्त हुआ। उनकी सभी बातें नई हैं। अब वुह बाबू नहीं रहे जो गृह बंधन में पड़ने फिर कावें। यहां ढूंढा, वहां ढूंढा, इसके घर ढूंढा, उसके घर ढूंढा, बाबू कहीं नहीं है। सच है वे झगड़े के स्थानों पर कही नहीं हैं। अब तो यह भो दौड़ा, वुह भो दौड़ा। मैं चल तू चल को चलाचली पड़ गई। अन्त को कई दिन की दौड़ धूप में मिलें तो क्यों न मिलें "जिन ढुढ़ा तिन पाइयां' । पर मिले भी तो क्या, कोटि उपाय किए गए, सब व्यर्थ । यह कहां सम्भव है कि हाथी के दांत जब बाहर हो गए तब फिर भीतर हो सकें। यह कहां हो सकता है कि जिस ने जिस को तुच्छ जाम के तिरस्कार कर दिया वुह उसे फिर ग्रहण करे। सवारी शिकारी पर उसका चित्त चल सकता है जिसे प्रेम विवान न मिल सके। जब घर ही हमारा नहीं है तो घर के हाथी घोड़ों से हमें क्या काम । अस्तु, फिर अपना क्या बस है। हां, वे हमें अपना नहीं समझते पर हम तो उन्ही के हैं। जहां तक हम से होगा उन्हें मार्ग में कष्ट न होने देंगे। पर वुह न जानने पावै कि उनके खान पान इत्यादि का प्रबंध हमारी ओर से है, नहीं तो उन्हें आत्म कष्ट होगा। समझेंगे कि अब भी पीछा नहीं छोड़ते । पाठक देखो, जब सच्चे जी से कोई संसार सुखों का त्याग कर देता है तो सुख उस के पीछे २ सेवक के भांति चलता है। नखरा तो लक्ष्मी रानी उससे करती हैं जो उन्हें चाहे । कया संक्षेप, बड़े आनन्द के साथ यात्रा हुई, और आज नहीं कल, कल नहीं परसों, परसों नहीं मास भर में, चाहे जब अभीष्ट स्थान पहुँचे, अवश्य ही उस आनन्द- कानन शांतिधाम भगवद्विहार स्थल में जा ही पहुँचे । धन्य प्रेम का आनंद ! जो पुरुष उच्च अट्टालिकाओं को छोड़ के आया है वह साधारण झोपड़ी में अधिक सुखी है। षटरस बिजनों का जिसने त्याग कर दिया है उसे भिक्षा के टुकड़ों में अधिक स्वादु है। गद्दी तकियाओं से, पुरानी खाट के जंगले अथवा टाट के टूक अथवा पृथ्वी पर लोट रहने में अधिक आनंद न होता तो ऐतनी दूर क्यों आते। एकाकी रहना अच्छा न होता तो कुटुंब, परिवार, हितू, परिजन, सेवक, रमणी आदि को क्यों छोड़ भागते हैं। एक वुह है जो इसी बाह्य बमव की आशा मात्र के लिये आठो पहर तेली के बैल की भांति बहा करते हैं, एक वुह भी हैं