पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सकते तो हम पुछवा देते कि माता की गोदी में निद्रा का सुख अधिक है कि मखमल को नरम सेज पर। जननी जिस समय धीरे २ थपक २ कर 'सोय जाय मोर ललया । मावरी सुम्व निदिया' कहती है उस समय अधिक सुख मिलता है कि रसीली कहानियों के सुनने के समय ? प्रेमी को वही प्यारा है जो प्रेम मार्ग में सहायक हो। ईश्वर ने निष्प्रयोजन कोई वस्तु नहीं बनाई। यदि स्वाने, पीने, सोने आदि में ही सुख को पूर्णता है तो और बात है, पर यदि किसी ओर चित्त का लगाव है और कुछ सहृदयता का तत्व जानते हो तो निश्चय उपर्युक्त वचनों की महिमा करोगे। जब कि संसारी जीव भी नौद और आलस्य को हानिजनक जानते हैं तो देवी पुरुष क्यों न बुरा समझें । उनकी तो महा हानि होती है। उन्हें एक २ स्वांस में भजनामृत का अकथ्य आनन्द मिलता है । उस्में विक्षेप होगा। कुछ न्यूनाधिक सौ वर्ष हुए कि यह महात्मा संसार के साथ शारीरिक संबंध छोड़ गए। पर प्रेम समाज में आज भी देवताओं की भांति प्रतिष्ठित, विद्यमान है। अपने जीवन में वे बहुधा आप ही आप, और कभी २ तरंग माती थी तब अपने कृपापात्रों से यही पवित्र बचन कहा करते थे कि "दिन थोड़ा है, दूर जाना है, यहां ठहरूं तो मेरा निर्वाह नहीं।" अब भी कभी २, किसी २ के अन्तःकरण के करणों में यही शब्द सुनने में आते हैं। धन्य हैं वे लोग जिनको इस बात का तत्व समझ पड़े। यह कथा कलकत्ता निवासी श्री लाला बाबू की है, जिनके सुविशाल मंदिर को वृन्दावन में बहुत लोगों ने देखा होगा। यद्यपि उनके विषय में बहुतेरों के मुख से बहुत सी बातें सुनने में आई हैं, पर यह चरित्र उनका ऐसा है जो उनके सो दोषों को दूर कर सकता है। सर्वथा दोष रहिन केवल भगवान हैं, पर सारग्राहिणी बुद्धि का धर्म है कि 'शत्रोरपि गुणा पाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि' इस बचन को भी सब बातों के साथ ध्यान रखे। जिनसे हमें अब प्रत्यक्ष संबंध नहीं रहा उनके औगुण ढूंढने में क्या धरा है ? वुह बुरे हो सों पर उनके सद्गुण हमारे लिए सन्मार्ग में चलाने की दीपक का काम दे सकते हैं। प्रिय पाठक, क्या तुम्हारे जी में भी कभो "दिन थोड़ा है" इत्यादि बचन सुनाई देते हैं ? यदि न सुनाई देते हों तो अब सुन रखो कि जीवन का समय थोड़ा है, और संसार में आके केवल खाने सोने का काम नहीं है। यदि अपनी आत्मा की ओर देखो, अपने देश की जोर देखो तो समझ सकते हो कि तुम्हारे कर्तव्यों का गिनती नहीं है। निज कल्याण और भारत हित के मार्ग में तुम्हें बहुत दूर जाना है। यदि इसी दशा में बने रहे जिस्मे अभी हो तो निश्चय तुम्हारा निर्वाह नहीं है। हम यह कभी नहीं चाहते कि हमारे सुहृदगण भी घर छोड़ के भिक्षा के टुकड़ों पर दिन काटें । नही अपना घर, अपना मनोमंदिर, अपने बंधु बांधव इष्ट मित्र, परोसी और स्वदेशी भाइयों के घरों को देखो और निज का घर समझ के उनके प्रभावों को दूर करो। सम गृही भाइयों के लिए सुख का उपाय करो, पर आज हो से, इसो क्षण से, सन्नद्ध हो जाब क्योंकि ढिल्लरपन से निर्वाह न होगा। मृत्यु पुकार रही है, 'संभल, शंघ्र संभल, तेरी आंखें मूंदने में बिलम्ब नहीं है। एक पल भर में सब म नोर्थ विलीयमान हो जायेंगे। अपना भला चाहता है तो केवल चाहने से