पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१३०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-प्रयावली करेंगे, पर थोड़े ही दिन में सुख का लेश भी न रहेगा, उलटा पश्चाताप गले पड़ेगा, बरंच तृष्णा पिशाची अपनी निराशा नामक सहोदरा के साथ हमारे जीवन को दुःखमय कर देगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य यह षड्वर्ग यद्यपि और अवस्थाओं में भी रहते ही हैं, पर इन दिनों पूर्ण बल को प्राप्त हो के आत्म मन्दिर में परस्पर ही युद्ध मचाए रहते हैं, बरंच कभी २ कोई एक ऐसा प्रबल हो उठता है कि अन्य पांच को दबा देता है और मनुष्य को तो पांच में से जो बढ़ता है वही पागल बना देता है। इसी से कोई २ बुद्धिमान कह गए हैं कि इनको बिल्कुल दबाए रहना चाहिए, पर हमारी समझ में यह असम्भव न हो तो महा कठिन, बरंच हानिजनक तो है ही। काम शरीर का राजा है ( यह सभी मानते हैं ) और क्रोधादि मानो हृदय, नगर, अथवा जीवन, देश ही कुछ न रहा। किसी राजवर्ग के सर्वथा वशीभूत होके रहना गुलाम का काम है । वैसे ही राज-परिषद का नाश कर देने की चेष्टा करना मूर्ख, अदूरदर्शी अथवा आततायी का काम है। सच्चा बुद्धिमान, वास्तविक वीर वा पुरुषरल हम उसको कहेगे जो इन छहों को पूरे बल में रख के इनसे अपने अनुकूल काम ले ! यदि किसी ने बल नाशक औषधि आदि के सेवन से पुरुषार्थ का और "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" का दृढ़ विश्वास करके कामनाओं का नाश कर दिया और यावत् सांसारिक सम्बन्ध छोड़ के सबसे अलग हो रहा तो कदाचित षड्वर्ग का उसमे अभाव हो जाय ! यद्यपि संभव नहीं है पर उसका जीवन मनुष्य जीवन नहीं है। धन्य जन वे हैं जो काम शक्ति को अपनी स्त्री के पूर्ण सुख देने और बलिष्ठ संतान के उत्पन्न करने के लिए रक्षण और वधंन करने मे लगावें। कामना अर्थात् प्रगाढ इच्छा प्रेममय परमात्मा के भवन और देशहित की रक्खें। क्रोध का पूर्ण प्राबल्य अपने अथच देश भाइयो के दुःख अथप दुर्गुण पर लगा दें। ( अर्थात् उन्हें कच्चा खा जाने की नियत रक्खें ) लोभ सद्विद्या और सद्गुण का रक्खें। मोह अपने देश, अपनी भाषा और अपनेपन का करें। जान जाय पर इन्हें न जाने दें। अपने आर्यत्व, अपने पूर्वजो के यश का पूर्ण मद ( अहंकार ) रक्खें। इसके आगे संसार को तुच्छ सममें, दूसरे देश वालों मे चाहे जैसे उत्कृष्ट गुण हों उनको कुछ न गिन के अपने में ऐसे गुण संचय करने का प्रयत्न करें कि दूसरों के गुण मंद न पड़ जायं । मात्सर्य का ठीक २ बर्ताव यह है । जो ऐसा हो जाय वही सच्चा युवक, सच्चा जवान और सच्चा जवांमद है। उसी को युवावस्था ( जवानी ) सफल है। पाठक ! तुम यदि बालक वा वृद्ध न हो तो सच्चा जवान बनने का शीघ्र उद्योग करो। खं० ४, सं० १ (१५ नवम्बर ह• सं० ३)