पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१३३

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पादरी साहब का व्यप यत्य ] क्या, हम मनाते हैं, परमेश्वर हमारे ठाकुर साहब और रौरे को भी सिखाये । धन्य है, देश से आते देर नहीं और सेठजी बन जाते देर नहीं। चाहे नित्य दिवाला निकले, पर 'अपणा भईयारो कौड़ी ने रवखांगा । हम तो इस बुद्धि को देवताओं ही की बुद्धि कहेंगे । रहे शूद्र, जो सबकी दृष्टि में नीच हैं, पर पांच पंच का दर, सहायता, स्नेह का पूर्ण सुख भोगते हैं। इसी से कहते हैं कि 'ऊंच निबास नीच करतूती, तेहिते लगी बड़ेन महं छूतो'। खं० ४, सं० ५ ( १५ दिसंबर, ह० सं० ३) पादरी साहब का त्यथ यत्न परमेश्वर की दया और स्वामी दयानंदादि सत्पुरुषों के उद्योग से अब वह दिन तो नहीं रहे कि नीलकंठ, किस्टोमोहन, माइकेल मधुसूदन सरीखे विद्वान्, अब भारत के पुरुषरत्न न बनके ईसा की...." में शरीक हो जायं। यह बात सैकड़ों बार देख ली गई है कि छोटे २ अजातस्मश्रु बालकों से भी अच्छे २ पादरी मतबाद के समय सिर से झगड़ा टालने के लिये सौ बहाने गढ़ के भी जब न बच सकते तो अबाक हो जाते हैं । एक बार एक बड़े पादरी जी चौक में खड़े एक ग्रामीण भाई को समझा रहे थे कि रामायण खरीद के क्या करोगे ? उसमे ईश्वर और मुक्ति का रास्ता कहाँ है ? इतने में हमारे मित्र मदनचंद्र खन्ना उधर जा पड़े और इस विषय में उलझ पड़े, कि रामायण न सही तो ईश्वर की पुस्तक आप ही बतलाइए। पादरी साहब इधर उधर की हांक चले, पर बाइबिल को ईश्वरीयता सिद्ध करना सहज न था, क्योकि प्रतिवादी पढ़े लिखे क्षत्रिय का लड़का था। जब और बातों में न जीते तो यह कहने लगे, तुम लड़के हो, तुम्हारी बुद्धि चंचल है, तुम न समझोगे, इत्यादि । इस पर खन्ना साहब भी पीछे पड़ गए कि मसीह ने स्वयं लड़कों का गौरव किया है। आप लोग भी लड़कों को बपतिस्मा देते हैं, फिर मुझे समझाने में क्या हानि है ? इसका उत्तर तो कुछ आया नही, मैं (प्रताप मित्र ) पीछे खड़ा था, मेरी ओर देख के पादरी साहब ने कहा, इनको समझा दीजिए कि शास्त्रार्थ और बात है पर लड़कों को धर्मतत्व समझाना सहज नहीं है । मैंने बड़ी नम्रता से कहा कि औषधि की आवश्यकता रोगी ही को होती है। यदि लड़कों और अज्ञानियों ही को न समझाइएगा तो किसे समझाइएगा ? आपका काम ही यह है । इसके उत्तर में साहब अंगरेजी बोक चले कि गो मेरा यही काम है पर इतना बड़ा विषय सहज में तो नहीं समझा सकता। मैंने कहा, कृपा करके हिंदी ही में कहिए, नहीं तो यह सब जो खड़े है न समझेंगे। अब तो उन्हें और भी उलझन पड़ी । खैर दो