पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१३४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

११२ [ प्रतापनारायण-पंपावली चार बातें और कहके बोले कि बंगले पर इस लड़के भाई को भी लेके आइए, मैं बखूबी समझाऊंगा। मैंने कहा कृपा करके यहां समझाइए तो इन चालिस पचास भाइयों का और उपकार हो। वहां हमी तीन जन होगे। इस पर जब साहब ने देखा कि किसी भांति पिंड नहीं छोड़ते, तो बोले कि बाबा, मिहरबानी करो, अब जाने दो, और चल दिए । श्रोता लोग हंसने लगे। पाठक गण ! ऐमे २ अवसर सैकड़ों हुवा करते हैं जिनसे सिद्ध हो गया है कि मसीही धर्म का गौरव तो पढ़े लिखे हिंदुओं में जमना असंभव है। मतवाद में जीतना डबल रोटी का कौर नहीं है। हम महात्मा मसीह और उनके धर्म के उतने विरोवी नहीं हैं जितने राम परीक्षा, कृष्ण परीक्षादि के लेखक कट्टर ईसाई हमारे धर्म के विरोधी हैं। हमसे कोई धर्मतः मसीह के विषय में पूछे तो धर्मशील भगवद्भक्त, सदाचारी कहने में न रुकेंगे। उनके उपदेशों को माननीय और मादरणीय कहेंगे। पर निज धर्म, निज कुटुंब, निजाचार और निजता को तिलांजली देके भक्ष्याभक्ष्य भक्षने वाले और गुरू घंटालों के माया जाल में फंस के जन्म खोने वाले को कदापि बुद्धिमान विचारशील न कहेंगे । चित्त से मसीह को प्रतिष्ठा न करना हमारी समझ में अन्याय है और पादरियों की चिकनी चुपड़ी बातों में आके उनका गुलाम बन जाना भी आत्महिंसा है । मसीह के बचन मनुष्य की आत्मा के लिये अमृत हैं पर वुह अमृत अकेले उन्हीं पर समाप्त नही हो गया। उनके पहिले भी लोगों को मिला था और सदा अधिकारियों को मिलता रहेगा। यह विश्वास हमारा ही नहीं है,लाखों पढ़े लिखों का है और परमेश्वर करे सबका हो । पर केवल मसीह ही मुक्तिदाता है, यह बात इस जमाने में युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध कर देना पादरियों की सामर्थ्य से लाखों योजन दूर है । रहा सांसारिक महत्व, सो भी सब ठौर, सब जाति के विद्वान्, बुद्धिमान और सच्चरित्र ही की प्रतिष्ठा है, कुछ ईसाई ही हो जाने से सिर में सुर्खाब का पर नहीं खुस जाता। हर शहर में संकड़ों क्रिस्तान हैं जिन्हें कोई क्रिस्तानों का मुखिया भी संत नहीं पूछता। इससे मुसलमानी राज्य में ही अच्छा था कि मुहम्मदीय धर्म स्वीकार करके ही दुख दरिद्र टल जाते थे। आज दिन तो बड़ी स्वाद यह है कि धर्म भी छोड़ो और बड़ी भारी योग्यता भी पलो तो भी गोरा रंग न होने से नेटिव का निंदित एवं शापित नाम बना ही रहता है। नाम, भाषा, भेष चाहे जसा अंगरेजी हो पर कहलाते बिचारे नेटिव क्रिश्चियन ही हैं। अब तक जार्डन नदी का पानी सिर पर नहीं डालते तभी तक प्यारे भाई कहलाते हैं। जहां शिर पर पानी पड़ गया वहीं जाति पर, वंश पर, नाम पर और प्रतिष्ठा पर पानी पड़ गया। हिंदुओं की दृष्टि में भी घृणित हुए और पादरियों ने भी कोई विशेष रूप से गौरव न किया। बिधारे न इधर के हुए न उधर के हुए । बहुत से देशी भाइयों की दशा देख के हमको बहुधा शोक होता है जिन्होंने पहिले तो माहब बनने के चाव से धर्म छोड़ दिया है, पर अब पछिताते हैं, क्योंकि जिस जाति में उत्पन्न हुए थे वहां अब कोई पास नहीं बैठने देता और जहाँ नाकर मिले हैं वे भी घर नहीं भरते। रही खाने पीने की स्वतंत्रता, सो भी मनमोदक मात्र सम्बम ईसाई भी कसित मास एवं मदिरा नहीं छूते, अच्छे हिंदुओं की तो क्या