पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१४२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२० [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली पाही है कि-'इस शर्त पर जो लीजे तो हाजिर है दिल अभी। रंजिश न हो, फरेब म हो, इम्तिहाँ न हो ।' कहां तक कहें, परीक्षा सबको खलती है ! क्या ही अच्छा होता जो सब से सब बातों में सच्चे होते और जगत में परीक्षा का काम न पड़ा करता । वुह बड़भागी धन्य है जो अपना भरमाला लिए हए जीवन यात्रा को समाप्त कर दे। ___खं० ४, सं० ८ ( १५ मार्च १० सं० ४) बलि पर विश्वास इस बात का विश्वास मसीही धर्म का मूल है कि ईसा हमारे पापों के लिए बलि हो गए हैं। अर्थात् हमें पाप जनित दुःख से छुड़ाने के निमित्त अपने प्राण दे दिए हैं । सच्चे ईसाई इस कारण से उनको कृतज्ञता प्रकाशनार्थ अपना तन, मन, धन, जाति, कुटुम्ब, बरंच प्राण तक निछावर कर देने में ईश्वर को प्रसन्न करना मानते हैं और अपने अज्ञात दशा में किए हुए पापों के फल भोग से निश्चित रहते हैं । यदि बिचार के देखो तो प्रत्येक स्थान पर कोई २ ईश्वर को प्यारे होते हैं जो लोकोपकारार्थ बलि हो जाते हैं, और कृतज्ञ समुदाय को योग्य है कि ऐसे उपकारियों का गुण मान उनके लिए एवं उनके नाम पर जहां तक हो कुछ प्रत्युपकार करें तो संसार का महोपकार संभव है। स्त्रीष्टीय धर्म प्रचार के आरंभ में बहुत से लोग महा २ विपत्ति झेल चुके हैं, यहाँ तक कि जीते जला दिए गए हैं पर यह कहने से नहीं रुके कि ईसा ने हमारे लिए प्राण. दिए हैं, हम उसका उपकार क्यों न मानें । उन्ही की दृढ़ता का फल है जो पृथ्वी के प्रत्येक भाग मे ईसा का मत गौरव के साथ फैल रहा है। बड़े २ बादशाह, बड़े २ विद्वान, बपतिसमा लिए बैठे हैं। बरंच हम यह भी कह सकते हैं, उन्हीं के धर्मदाढ्यं का फल है (प्रत्यक्ष हो या परंपरा द्वारा) कि कई असभ्य देश सभ्य हो गए। हमारा तात्पर्य इस कई जित समाज जेता हो गए-लेख से वह नहीं है कि हमारे प्रिय पाठक भी सत्य सनातन धर्म छोड़ निज कुल से मंह मोड़, पादरियों के पछलगुआ बन बैठे। पर अच्छी बातें जिसके यहां से मिलें, लेना श्रेयस्कर है। क्या हमारे धर्म में उपकारी की कृतज्ञता वजित है ? जब कि कुना भी अपने टुकड़ा देने और चुमकारने काले के साथ प्रीति निभाता है तो मनुष्य क्या उससे भी गए बीते हैं कि अपने हित- षियो के अनुग्रहीत न हम हों ? जिनको हम विधर्मी और निन्ध कहते हैं, उनमें इतनी कृतज्ञता है तो क्या हमको कृतघ्न होना चाहिए ? अन्य सम्प्रदायी जिन बातों को करते हों इनके ठीक विरुद्ध चलना हमारे यहां कहीं नहीं लिखा। फिर हम इतरों को भली बातों को क्यों छोड़ दें ? यदि विचार के देखिए तो मसीह कोई धनी और विद्वान् न थे कि कोई बड़ा उपकार कर सकते। उपदेश भी केवल अपने शिष्यों ही को देते