पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१४३

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बलि पर विश्वास ] १२१ थे। जिन बिवारों ने ईसा के नाम पर अनेक दुःख सहे उनका कभी ईसा ने नाम भी नहीं लिया। हमारे यहां तो पुरुष रत्नों ने अपना तन, मन, धन, विद्या, प्रतिष्ठा, सब कुछ केवल हमारी उन्नत्यर्थ लगा दिया, और हमारे लिए हाव २ करते २ दुष्ट काल का कौर हो गए ! पर हम उनको मानों भूल गए ! दयानन्द स्वामी घर की तहसील- दारी छोड़ के फकीर भए थे, विद्या भी साधारण न थी, रूप भी दर्शनीय था, बुद्धि में भी चमत्कार था। क्या वुह चाहते तो दस बीस राजाओं को भी न मूड़ते, दो चार गांव भी अपनी मुट्ठी मे न कर लेते, दो चार बारांगना भी नित्य सेवा में न रखते अथवा विशुद्ध बिराग धारण करके देवता न बन जाते । केशव बाबू क्या कहीं के जज वा बड़े बारिस्टर बन के लाखों का द्रव्य और लाखों मुख न भोग डालते ? हमारे भारतेन्दु क्या दस पांच कोठियों के स्वामी बन सकते थे ? सर्कार के यहां से श्री ईसाई ( सी० एस० आई० ) अथवा अनार्यरी मजिस्ट्रेट न हो सकते ? पर उन्हें तो यह धुन थी कि आर्य वंश हमारे होते डूबने न पावे। इसी लिए अपना बहुत सा धन, बहुत सा समय, बहुत सा सुग्व त्याग दिया, बहुतेरों की गालियां सही और हमारी ही चिन्ता की चिता पर सो गए ! क्या न्याय यह नहीं कहता कि यह लोग हिन्दुओं के लिए, शिर मुंडा के घर क तमाशा देख के, बलि हो गए ? बहुतेरों का स्वभाव होता है कि कसो ही बात कहो, कोई पख जुरूर निकालते हैं । ऐसे जन कहते हैं कि उक्त स्वामी जी एवं बाबू जी अपना नाम चाहते थे। इसका सहज सा उत्तर यों है कि नाम तो विषयासक्ति और अपव्यय से भी लोग पा सकते हैं। देश को फिकर क्यों करते? यदि मान ही लो कि नाम चाहते थे, तो विचारों ने खोया तो अपना सर्वस्त्र, सो भा परार्थ, और चाहा केवल नाम । आप को इसमें भी ईर्षा है तो नाम भी न लीजिए। गालियां दिया कीजिए। पर विचारशीलता यदि कोई वस्तु है तो वुह अंतःकरण से यही कहेगी कि-'पर हित ला गे सजं जो देही । सन्तत सन्त प्रशंसहि तेही ।' यदि कृतज्ञता कोई पदार्थ है तो वुह अवश्य कहेगी कि ऐसों का गुण मानना, ऐसों को प्रतिष्ठा तन-मन-धन से करना धर्म है और अपने तथा देश के लिए श्रेयस्कर है। भारत सन्तान मात्र इनके ऋणी हैं। इनके नाम पर अपना जो कुछ वार दे वुह थाड़ा है। कृतघ्नता के पाप से तभी हम मुक्त होंगे जब इनकी महिमा दृढ रखने का प्रयत्न करें। नहीं शास्त्र के अनुसार जिसका धन लिया है उससे बिना दिए उद्धार नहीं होता। जिसका सब जीवन ही हमारे हेत लग गया है उससे कैसे उऋन होंगे, जब तक जन्म भर उसके लिए अपना सर्वस्व न लगाते रहें। ऐसा करने से ही भारत का गौरव है। नहीं तो स्मरण रहे कि पृथिवी है भगवती का रूप और भगवती बलि प्रदान से संतुष्ट होती है । हमारे ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं है कि बिचारे अनबग बकरे की हत्या करने से भगवती प्रसन्न होती हैं । यों होता तो उनका नाम जगदम्बा न होता बरंच जगद्भक्षिणी होता। सच यों है कि ईश्वर की तीन महाशक्ति हैं-श्रीशक्ति, भूशक्ति, लीला शक्ति । उन तीनों के दो २ रूप हैं-देवी और आसुरी, तिस्मे भूशक्ति के आसुरी संप्रदाय वाले कुछ लोग तो पराए मांस से तुष्ट होते हैं पर श्रीशक्ति का देवी मंश उन दुश्चरित्रा तथा उद्गुण