पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१४४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली विशिष्ट जीवों के रक्तप्लावन से संतुष्ट होती है जो संसार के लिये अनिष्टकारक हों अथवा सत्पुरुषों के उस रक्त मांस से संतुष्ट होती है जो जगद्धितैषिता की चिताग्नि में धीरे २ वा कभो २ एकबारगी स्वाहा होता है ! सो भगवती भारतधरित्री ने हाल में उपर्युक्त तीन बलि लो है। निश्चय है कि यह विशुद्ध रक्त उनको साधारणतया न पच जायगा। अवश्यमेव कुछ अच्छा रंग दिखावेंगी। पर भारत संतान को भी योग्य है कि इस बलि पर विश्वास लावें कि इन पुरुषरत्नों ने हमारे लिए प्रान दिए हैं, हम भी यदि कृतघ्नता के पाप से बवा चाहें और अपना एवं अपने वंश का भला चाहें तो अंतःकरण से इनके महानुपकार के कृतज्ञ होके यथासामर्थ्य इनका अनुकरण करें, जिसमें इनके नाम की महिमा हो और कुछ लोग और भी आत्मबलि के लिये प्रस्तुत हों। खं० ४, सं० ८ और ९ ( १५ मार्च और अप्रैल ह ० सं० ४) मरे का मारैं साह मदार चार वर्ष से हम देख रहे हैं कि देशी समाचारपत्रों में, विशेषतः हिंदी के पत्रों में, जो कुछ धन लाभ होता है, बिचारे सम्पादकों का जी ही जानता है ! दुःख रोना नीति ग्रंथों में वर्जित है, हम सम्पादक हैं, जब दूसरों के दुःख सुख, गुण औगुन छाप डालते हैं तो अपने क्यों न कहें ? जो सम्पादक अखबार की आड़ में भिक्षा-भवन करते नहीं शरमाते, धनिक मात्र को झूठो प्रशंसा से पत्र भर के सहायता के नाम से मांग जांच कर अपना घृणित जीवन भी निभाते हैं उनकी तो हम कहते नही, पर जिन्हें अपनी लेखनी के बल का घमंड है, और यह सिमान्त है कि "को देहीति वदत्स्वदग्ध जठरस्याथें मनस्वी पुमान" उनको राम ही से काम पड़ता है। 'रसिक पंच' 'भारतेन्दु' 'उचिते वक्ता' इत्यादि उत्तमोत्तम पत्र इसी घाटे की छूत के मारे थोड़े ही दिन चल के बंद हो गए। हमारे 'ब्राह्मण' का यह हाल है कि हृदय का रक्त सुखा २ के अब तक चलाए जाते हैं। वर्ष भर में डेढ़ सौ रुपया छपवाई और डाक महसूल को चाहिए और आमदनी इस बर्ष आठ मास में केवल २०) रू. की हुई है । चार वर्ष में दो सौ का का हुवा है। उसे कुछ भुगता चुके हैं, १५०) भुगताना बाकी है। महीनों से तगादा करते हैं, ग्राहक सुनते ही नहीं। बाजे २ महापुरुषों ने चार बरस में कोड़ी नहीं दी, बाजे २ दस-दस पंद्रह-पंद्रह रुपए यों लिए बैठे हैं। महीना दो, महीना और देखते हैं, नहीं तो सबकी नामावलो छापनी पड़ेगी। कहां तक मुलाहिजे के पीछे भार सहें । प्रेस वाले जानते हैं संपादक जमामार है। संपादक बिचारा नादिहंदों की हत्या अपने सिर मुड़ियाए है ! छापने वालों का तगादा सुनके लना, क्रोध और चिंता खाए लेती है। बानो गृहस्थी के खर्च में हर्ज सह २ के कुछ देते आते हैं और मूठे वादे तथा