पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१४६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२४ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली (फारसी में) भी तो बड़े छटे, बड़े नीतिनिपुण हैं। वे काहे को चुकते हैं | जब द्वापर के अंत में इस देश की ओर आने लगे तो अपना नामराशी नगर समझ के इस कानपुर को अपनी राजधानी बनाया और बहुत से ककार ही नाम वाले मुसाहब बनाए, जिनमें से छः सभासद हम पर बड़ो कृग करते हैं। अतः हम ने सोचा कि अपने रत्न दयालु जजमानों की स्तुति न करना कृतघ्नता है। छः मुसाहब, एक महाराज, एक उनकी राजधानी की स्तुति में अष्टक बना डालें तो संसारी जीव धर्म कर्मादि से शीघ्र मुक्ति पा सकेंगे। हमारे छः देवता या कलिराज के मुख्य सहायक यह है-एक कौजिया, यद्यपि कान्यकुब्ज मंडली इत्यादि की कार्रवाइयां उन्होंने महाराज की मरजी के खिलाफ को है । पर महाराज तो बड़े गंभीर हैं। वे बहत कम नाराज हुए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि इनकी पैदाइश विराट भगवान के मुख से है, और मुख ऐसा स्थान है जहां थूक भरा रहता है। फिर जो थूक के ठौर से जन्मेगा वह कहां तक थुकैलपना न करेगा। दूसरे कायस्थ हैं। इन पर भी कायस्थ सभा, कायस्थ पाठशाला का इलजाम लग सकता है और बाजे लोग बैष्णव हो जाते हैं इस से कलियुग जी नाखुश हो जायं तो अजब नहीं। पर चूंकि कलिराज की माशुका बी उरद जान की सिफारिश है, इस से कोई डर नहीं रहा। तीसरे मुसाहिब कलवार हैं। इनमें बेशक वही लोग हजूर के कृपापात्र हैं जो कलवरिया के कार्याध्यक्ष हैं। चौथे कहार, पाव कसाई, छठे कसबो। यह बेशक बे ऐब हैं। इन छहों मुसाहिबों में इतना मेल है, एक दूसरे के मानों अंग प्रत्यंग हैं । एक के बिना दूसरा निबंल है, और उन्हीं के एका का फल है कि कलिदेव राज करते हैं। यह परिचयस्त्रोत पाठकों को श्रद्धा बढ़ाने मात्र को दिया है ! स्त्रोत फिर ।। खं० ४ सं० ९ (१५ अप्रैल ह. सं. ४) आलमे तसबीर (१) इस नाम का एक साप्ताहिक पत्र उरद भाषा में यहां से निकलता है। इसके एडिटर साहब को बिचारी गौमों से और गोरक्षिणी सभा से न जाने कहाँ का बैर है कि जब कभी इसका आंदोलन कानपुर में होता है तभी आप बिन बात का बतंगड़ बढ़ा के, सीधे सादे हिंदुओं का जी दुवा देते हैं। हम अरबो के विद्वान नहीं हैं कि कुरआन हदीस के बचनों का अखंडनीय अयं जान सकें, पर जहां तक नागरी, बंगला, फारसी के प्रयों में देखा और सज्जन मौलवियों से मुना है वहाँ तक कह सकते १. स्तोत्र इस ग्रंथावली के काव्य खंड में देखें ।