पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१५५

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पतिव्रता ] १३३ आही।" सच तो यों है कि जिस स्त्री ने मन बचन कर्म से सत्य और सरलता के साय पति प्रेम का निर्वाह किया वुह महत्पूजनीया हैं । दक्ष प्रजापति की पुत्री सती देवो का चरित्र परम प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपने प्यारे प्राणनाथ भगवान भोलानाथ का अपमान देख के पिता का, देवताओं का, रिषियों का, अपने प्राण का भो कुछ सोच संकोच न किया। फिर क्यों न हम लोग सती शब्द को पतिव्रता का पर्याय समझें। भारत को पूर्णोन्नति का एक बड़ा भारी कारण यह भी था कि स्त्रियां बहुधा पतिव्रता होतो थो । संसार रूपी रथ के दोनों पहिए स्त्री और पुरुष हैं और व्यभिचार को तो व्यभिचारो लोग भी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सामाजिक अवनति का मूल मानते हैं । फिर जिस देश में स्त्रियां विशेषतः पतिव्रता हों और पुरुष एकत्रोवत हों, उस देश को उन्नति में क्या बाधा हो सकती है। जिस गाड़ी के दोनों पहिए दृढ़ हों, उसके चलने मे भो कोई अड़चन है ? प्रेम में यह सामर्थ्य है कि प्रेम पात्र कैसा ही हो, पर प्रेमिका की दृढ़चितता से वह अवश्य प्रेमिका के रंग ढंग का हो जाता है। पुरुष कैसा ही कुकर्मी और कर्कश हो पर स्त्री सच्चो पतिदेवता हो तो पुरुष निर्मन व्यभिचारी न रहेगा। ऐसे ही पुरुष सचमुच स्त्री से प्रीति रक्खें तो स्त्री का सुधर जाना असम्भव नहीं है। इसी से कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री दोनों कुल को सुशोभित करती है। जिस घर में पतिव्रता हो वह घर, वह कुल, वह देश धन्य है ! चितौर का राजवंश भारत के इन गिरे दिनो में भी इतना प्रतिष्ठित है, इसका मुख्य कारण यही है कि इस घोर कलि- काल में भी वहां सहस्रों शर और सती थी । इस जमाने में हम देखते हैं कि शूरता का तो प्रायः लोप ही सा हो गया है, पर सती भी बहुत कम रह गई हैं, बरंच न होने के बराबर कह सकते हैं । सती से हमारा यह प्रयोजन नहीं है कि खामखाह पति के साथ जल जाना चाहिए। मुख्य सतो वुह है जो पति के विरह रूपी अग्नि में ऐसा दुख अनुभव करे कि जीते जी मर जाने के समान । पर हाय ! एक वुह दिन थे कि हमारे यहां सतीत्व उस पराकाष्ठा को पहुँचा हुवा था कि जीते जल जाना तक रिवाज हो गया चा, और एक वह दिन है कि पतिव्रता ढूंढ़े मिलना कठिन है। हम यह तो नहीं सकते कि सारी स्त्रियां रक्माबाई की साथिनी हो रही है, पर इसमें भी संदेह नहीं है कि पति के दुख सुख में अपना सचमुच दुख सुख समझने वाली, पति की प्रतिष्ठा का पूरा ध्यान रखने वाली, पति से समचा स्नेह निभाने वाली स्त्रियां भी हजारों में दस ही पांच हों तो हों! इसके कई कारण हैं। एक तो यही कि स्त्री शिक्षा की चाल उठ सी गई • है। यदि कोई २ लोग पढ़ाते भी हैं तो मेमों से या मेम दासियों से । भला वे ईसा के गीत और लिबरटी सिखायेंगी अथवा पतिव्रत! दूसरे थोड़ा बहुत पढ़ भी गई तो घर का ठीक नियम नहीं है। बहुत सी दो २ चार २ पैसे की ऐसी पुस्तकें छप गई हैं जो पुरषों के लिए तो खैर, जी बहलाने को अच्छी सही, पर स्त्रियों के लिए हानिकारक हैं। बाबू साहब बाजार से ले आए, घर में डाल दिया। बबुआइन साहिबा ने खोल के पढ़ा तो 'जोबन का मांगे दान कान्ह कुंजन में ।' भला कौन आशा करें! तीसरे, मरदों