पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३६
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली है पर महाजनी पढ़ाने वाले मइया जी के यहां सदा बहुत ही छोटे लड़के पढ़ते हैं, वहां ईसाइयों का घुसना किसी तरह ठीक नहीं। लड़के तो लड़के रहे, बहुधा गुरूजी स्वयं नहीं जानते कि इन महापुरुषों से क्या हानि संभव है ! ईसाई साहब वहां बिन रोक टोक कह सकते हैं कि "लड़का तो लड़का मास्टरन के उड़ाई ला" । वहां ईसा को भेड़ों ने यह लीला फैला रक्खी है कि प्रायः सब महाजनी शिक्षकों को दो चार रुपया महीना देते हैं, और बहुत सी मीठी २ बातों में उन्हें फुसला के प्रति सप्ताह में दो या एक दिन हिन्दू बालकों को पादरिहाई शिक्षा देने जाया करते हैं। कभी २ छोटी २ तसवीरें, कभी किताबें, कभी मिठाई आदि बांटते हैं, जिससे नादान बच्चे और भी मोहित होके लालच के मारे और भी ध्यान देके उनकी बातें सीखें और अपनी रीति नीति, धर्म कर्म, देव पित्रादि को तुच्छ समझने लगे। मैंने स्वयं देखा है कि जिन बालकों के माता पितादिक नीच जाति के हिन्दू को छूके न्हाते हैं उन बालकों को गोद में बिठाके करंटे साहब ने मुंह चूमा ! लड़के विचारे को तो यह तालीम दी गई है कि सब एक मां बाप से पैदा हुए है, जात पात मानना पाप है। और तालीम भी किसी यूरोपवासी ने नहीं दी कि वुह हमारे आचार से अज्ञात हो, बरंच उन साहब ने शिक्षा दी है कि जिनके माता पिता भंगी चमारादि नीच थे ! भला शिक्षा देने वाला यह और शिक्षा यह कि-"माला लक्कड़, ठाकुर पत्थर, गंगा निरबक पानी । रामकृष्ण सब झूठे भैया चारों वेद कहानी।" तो बतलाइए इसका असर हमारे दुधमुंहे बच्चों के जी पर कैसा २ अनर्थ न मचावैगा! लड़कपन की सीखी बातों का संस्कार जन्म भर बना रहता है, यह बात सब जानते हैं । क्या यह उपदेश, यह ईसा के गीत, यह ईसाइयों का मिथ्या प्रेम, हमारी नई पौध के हक में छिपी हुई आग नहीं है ? हमारी समझ में सब बातों से पहिले इसके बुझाने का रत्न होना चाहिए । हम अपने देश हितैषी भाइयों से आशा करते हैं कि जहां मेलों और बाजारों में ईसाइयों का मुकाबिला करते फिरते हैं वैसे महाजनी पढ़ाने वालों को भी समझायें कि दो चार रुपए के लालच में वह अनर्थ न करें। कभी २ लड़कों के सामने भी करंटे साहबों को शास्त्रार्थ में निरुत्तर करते रहें जिसमें लड़कों को उनकी पोल पाल मालूम होती रहे। लड़कों के मातापितादि को भी समझायें कि जहां चार आने, आठ आने महीने देते हैं, वहां दो चार पैसे भया जो को और दे दिया करें, जिससे उन्हें क्रिस्तानी धन का घाटा भी न पड़े और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपने यहां न आने दें। यदि इतने पर भी उन्हें लोभदेव न छोड़ें तो लड़कों को वहां भेजना बन्द कर दें! बस यही उपाय है जिससे यह अनर्थकारिणो दबी हुई आग बुझ जायगी! नहीं तो याद रहे कि खजूर की ईंटें ऊपर २ नहीं जाती। एक दिन वह अवश्य आवेगा कि जिस मई पौध के लिए हम अनेक पत्र, अनेक पुस्तकें, अनेक सभा, अनेक लेक्चर, अनेक प्रोच करते है. जिस नई पौध से हमें बड़ी २ आशा है, वह नई पौध इस दबी हुई बाग में झुलस के रह जायगी और हमारा इस काल का सारा परिश्रम व्यर्थ होगा! स्वर्ग में भी हमारी मात्मा पछतायेगी कि "समय चूक फिर का पछिताने ।" खं० ४, सं० १२ ( १५ जुलाई, ह. सं० ४)