पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१६७

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कन्नौज में तीन दिन ] १४५ श्रीयन लाला काशीप्रसाद जी का प्रेम देख के अकथनीय आनंद प्राप्त हवा । इस बात मे और भी संतोष हुवा कि यहां अभी तक पुरानी मर्यादा बनी है। पुरुष मिलनसार हैं, स्त्रियां लजावती हैं। यह और भी सौभाग्य का विषय है कि मुसलमान सजन सुलह पसंद एवं हिंदुओं के दुख सुख में साथी हैं। दूसरे दिन गोरक्षा पर प्रताप मिश्र ओ स्वामी जी के व्याख्यान शुरू हुए । व्याख्यान का अधिक हाल लिखने की आवश्यकता नहीं है, केवल इतना हम कहेंगे कि स्वामीजी महाराज की भाषण शक्ति अवश्य ऐसी ही श्लाघ्य है कि एक प्रकार को जादु कहना चाहिये । इससे अधिक प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या होगा कि श्रीमुख के उपदेशों से समझदार बधिकों को भी दया उत्पन्न हो जाती है। हसनू कसाई ने गोवध छोड़ दिया ! सच पूछो तो उन हिंदुओं के मुंह पर थूक दिया जो ऊपर से धर्मात्मा रूप कहते हैं पर भीतर २ बूचरों का लेन देन करते हैं, गोरक्षा के लिए पहिले तो शरमाशरमी चंदा लिख देते हैं पीछे से बहाने सोचा करते हैं जिस में देना न पड़े। धिक ! ऐसे हिंदुओं की अपेक्षा हसनू प्रशंसनीय है जिन्हें स्वामी जी के बचनों का अमर हुआ, पर इन नीनों को बड़े २ रिषियों तथा निज मत के आचार्यों के वाक्य अमर नहीं करते । सच है "फूलै फल न बेंत जदापि सुधा बर जलद । मूरख हृदय न चत जो गुरु मिले बिरंचि सम ।' कनौज में एक वात देख के और भी प्रसन्नता हुई कि हिंदी कविता के समझने वाले और उसका आनंद लेनेवाले कानपुर लखनौ आदि बड़े २ नगरों से अधिक हैं । 'ब्राह्मण' संपादक ने एक दिन "बां बां करि तृण दाबि दांत सौं दुखित पुकारत गाई है" इस लावनी को तनक शोक मुद्रा से गाया था, इस पर सैकड़ों की आंखें डबडबा आई थी। बहुतों के आंसू ही निकल पड़े थे । यह बात हमारे नगर में कम है क्योंकि लोग हिंदी के रसिक कम हैं। पंडितबर पुत्तूलाल मिश्र और श्री हरिशंकर शास्त्री भी कान्यकुब्जपुर के सूर्य चंद्रमा कहने योग्य हैं, उच्चकुल और श्रेष्ठ विद्या वाले लोग हर कहीं होंगे, पर धर्म कार्य में कटिबद्ध और सम्यता सौजन्यादि गुणविशिष्ट बहुत थोड़े दृष्टि पड़ते हैं । 'विद्या ददाति विनय' का ठीक नमूना हमें इन्ही दोनों व्यक्तियों में देख पड़ा । हम आशा करते हैं कि यह दोनों महात्मा कनौज गोशाला तथा गोरक्षणी सभा के कामों से सब लोगों को सदैव प्रोत्साहित रखेंगे। हम ने सुना है कि कई लोग कचियाते हैं। यदि ईश्वर न करे कही ऐसा ही हुआ हो हमें इन्ही मिश्र जी से और त्रिपाठी जी से अधिक उलहना होगा क्योंकि यह भी कनौजिया है और खास कनौज में कोई सद्नुष्ठान हो हुवा के रह जाय तो अचम्भा है और उनके लिए अधिक लजा है जिनके नाम से कनौज का संबंध हो। (अपूर्ण) खं० ५, सं० १,२ (१५ अगस्त, सितंबर ह० सं० ४)