पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७०

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हम राजभक्त हैं इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे यहां जितने धर्मप्रचारक हो गये हैं उनमें से ऐसा कोई न था जो संसारीय वैभव को चाहता हो, प्रत्युत राजर्षि लोग स्वयं अपना राज्य छोड़कर बैराग्य लेते थे। इसी से उन्होंने कही राजा से ढिठाई करने का उपदेश नहीं दिया। क्योंकि वे जानते थे कि आज जो गद्दी पर है वुह हमारा ही लड़का व छोटा भाई व मंत्री है, फिर मनुष्य जाति स्वभाव क्यों कर चाहेगा कि लोग हमारे एक आत्मीय से गुस्ताखी करें। रहे ब्रह्मर्षि, सो वे जानते थे कि सूर्यवंशी चंद्रवंशी सब हमारे प्रिय शिष्य हैं । उनसे यदि कोई धृष्टता करेगा तो संसार का प्रबंध बिगड़ेगा। इसी कारण से हमारे प्राचीन इतिहासों में एवं धर्मग्रंथ में यह कहीं न पाइएगा, अमुक समक राजा से प्रजागण बिगड गए। प्रत्यत यह आशय सैकड़ों ठौर लिखा है कि राजा प्रजा का पिता पुत्र का सा संबंध है। राजा ईश्वर का अंश है । गीता में तो साफ लिखा है कि मनुष्यों में राजा भगवान का रूप है। भगवान का रूप क्या साक्षात भगवान होने का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि मुसलमान, ईसाई, ब्राह्म, आर्य सब हमको ईश्वर विमुख कहते हैं, पर हम अपने अयोध्याधिपति भगवान रामचंद्र को अपना इष्टदेव, मुक्तिदाता और धर्मसर्वस्व मानते हैं। इससे अधिक हमारी राजभक्ति का नमूना और क्या होगा। जिस राजा ने हमको तनक अच्छी तरह रखा हम उसी के उपासक हो जाते हैं। अकबर को मुसलमान इतिहासवेत्ता चाहे जो कहें पर हमारे यहां के बड़े उच्चकुल के अभिमानी वीर राजपूतों ने उन्हें दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा कहा है। हम साहंकार कह सकते हैं कि हम निस्संदेह सच्चे रामभक्त हैं। हमारे समान कोई बिरली ही जाति राजभक्त होगी। राजा की जाति, धर्म, आचार व्यवहार, कुछ ही क्यों न हो हम उसे मान्य करते हैं। मान्य ही नहीं बरंच यदि हमें प्रसन्न रखे तो हम उसे पूजने लगें। ईश्वर का नाम पढ़े लिखों में जगन्नाथ इत्यादि और बिना पढों में दई राजा आदि से प्रत्यक्ष है कि हम ईश्वर और राजा को पर्याय समझते हैं। हम अपने धर्माचार्य ब्राह्मणों को भी महाराज कहते हैं। इससे हमारे यहाँ का एक लड़का भी जान सकता है कि राजा को हम क्या समझते हैं । फिर जो कोई हमारी राजभक्ति मे संदेह करे वुह अवश्य न्याय के गले में छुरी फेरता है। हमारे इस सिद्धांत का खंडन माधुनिक गवर्नमेंट के झूठे ग्वुशामदी सन् १८५७ के बलवे के सिवा और कोई दोष नहीं लगा सकते । पर उन्हें भी समझना चाहिए कि वुह अपराध प्रजा का न था, किसी प्रतिष्ठित हिंदू मुसलमान का दोष न था, केवल थोड़े से अदूरदर्शी .." के कारण हमारे भारतीय नेशन मात्र को कलंक लगाना बुद्धिमत्ता से दूर है। यदि मान ही लें कि वुह अपराध हिंदुस्तानियों ही का था तो भी इसका क्या उत्तर है कि उस घोर समय में