पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७५

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सब की देख ली परमेश्वर न करे कि किसी को परीक्षा का सामना पड़े नहीं तो घर २ मिट्टी के चूल्हे हैं। यह जमाना भारत के गिरे दिनों का है, जिस को परीक्षा में न उतरना पड़े उसके धन्य भाग! साधारण पुरुषों को हम नहीं कहते, जो लोग देशहित का बाना बांधे हैं, जिनकी जिह्वा व्याख्यान देने के समय घंटों रेल की अंजन हो जाती है, जिन की लेखणी अखबारों के कालम रंगते समय पृथ्वी और आकाश को एक कर डालतो है, उन संपादकों और पत्र प्रेरकों की कथा भी विचित्र ही है। यद्यपि हम भी उन्हों में से एक हैं और औवल नबंर के बेफिकरे गिने जाते हैं, पर हां यह अहंकार के साथ दावा करते हैं कि और बातों में चाहे जो हो पर दोस्ती का हक निभाने और कृतज्ञता दिखाने में कभी न चूके हैं न चूकेंगे ! जिन्हें काम पड़ा है उन्होंने देख लिया, जिन्हें जब इच्छा हो देख लें कि हम उक्त दो बातों में चूकने वाले नहीं हैं। बेमुरोवतो, छंटापन और तोताचश्मो पहिले दूसरी ही ओर से आरंभ हुई होगी, पर हमें ईश्वर ने इन ऐबों से आँख तक पाक रक्खा है और पूर्ण भरोसा है कि सदा पाक रक्खेगा इसो शेखी पर हम कई एक विषयों में मुंहफट्ट होके कहेंगे कि सब की देख ली। ___ यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हिंदुओं को देशहित, सहृदयता निजता आदि गुण सिखलाने और हिंदी का असली गौरव दिखलाने में श्री हरिश्चन्द्र ने अपन तन मन धन खो दिया था। अब परमेश्वर की इच्छा से उनके साथ हमारा दैहिक संबंध नहीं रहा, पर उनकी कृतज्ञता न करना मनुष्य से दूर है। यही समझ के यहाँ के कई एक उत्साही पुरुषों ने "श्री हरिश्चन्द्र पुस्तकालय" स्थापित किया है जिससे सर्वसाधारण को उनका स्मरण भी होता रहे और नाना भांति की पुस्तकें एवं पत्र देखने का सुभीता भी रहे जो पढ़े लिखे लोगों के लिए जी बहलाने का एक जरिया है। पर यह सब समझदार जानते हैं कि ऐसे बड़े २ काम बिना बहुत से लोगों की सहायता से नहीं हो सकते । यही समझ के जाने २ बड़े २ संपादकों, ग्रंयकारों और देशहित के मरीजों को पत्र लिखा था। कोई हमारा निज का लाम नहीं है, बहुत से लोग सहायक होंगे सो बहुत ही से लोगों का हित भी है, पर और सहायता तो दूर रही 'सार सुधानिधि' 'प्रयाग समाचार' 'भारतवर्ष' और 'मित्र' के सिवा किन्ही साहब ने उसका विज्ञापन भी नहीं छापा! हमारे प्रेमास्पदवर श्री बा० भगवानदास तथा बाबू रामदास और बा. रामकृष्ण खत्री तथा दो चार निज मित्रों के सिवा पुस्तक और धन की क्या कथा है पत्र का उत्तर भी गजेबाजों ने नहीं दिया। हाय, जो लोग भारतेंदुजी के जीवनकाल में उनके परम प्रेमी बनते थे, उनके गोलोक प्रयाण में कागज काले करते थे, आज भी जिन्हें निज भाषा, निज धर्म, निज देश ही का आल्हा गाते सुनाते हैं, उनके किए यदि सड़ी मड़ी बातें न हो सके तो क्यों न कहिए कि सब को देख ली। ___ खं० ५, सं० ३ (१५ अक्टूबर ह. सं० ४)