पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नास्तिक ] १५५ अष्ट प्रहर ईश्वर २, धर्म २, स्वर्ग २ इत्यादि रहता है उन में आस्तिक बहुत थोड़े हैं । क्योंकि एक सम्प्रदाय वाला दूसरे समस्त सम्प्रदायियों को इसी के नाम से पुकारता है। अनुमान करो कि संसार में सो मत प्रचलित हैं तो निन्नानवे मत वाले एक २ मताव- लम्बी की नास्तिकता पर साक्षी देने के लिए अपने आचार्यों और ग्रंथों की दुहाई देते हुए प्रस्तुत हैं । 'एक मत कोज मूरख पण्डित रंक नृप नीच ऊंच को नेम । मेटि सबहि इक सो करे अहो धन्य प्रिय प्रेम ॥ १ ॥ जिहि केवल मतवाद को रुचति वृथा बकवाद । सोई निदत प्रेम को बिन पाए कछ स्वाद ॥२॥रक अग्नि को आंच अरु इन्द्र अराम ( बाग ) अराम । जानहि जाननहार जग प्रेमहि के दोउ नाम ॥ ३ ॥ बिरले ही मन जानहीं कछुक प्रेम की बात । मुख ते रूप सुभाव गुन कैसेहु कहे न जात ।।४।। अगनित जन नित मरत हैं याके कारन हाय । प्रीति महामारी है धी कछु और बलाय ॥ ५ ॥ जो कोउ ब्रह्म अरूप को देख्यो चहै सरूप ! नेह नयन सों लेहिं लखि जग के सुंदर रूप ॥ ६ ॥ जदपि प्रेम बह रोग है जाकी औषदि नाहिं । ५ या के परभाव ते माधि व्याधि सब जाहिं ॥ ७॥ मन की आंख उघारि के देखि सकहिं मतिवान । गूढ रूप सब के हृदय सहि प्रेम भगवान ॥ ८॥ श्री भारत शशि सरिस ऋषि उपदेश जब मर्म। प्रेमहि गनै प्रताप किन सब धर्मन को धर्म ॥ ९ ॥ रची प्रेम एकादशी ( ? ) प्रेमिन हित परताप! प्रेम बुद्धि जिन के नहीं सोन समुझिहैं आप ॥ १०॥ यदि आप सच्चे आस्तिक हैं तो सम्पूर्ण संसार आप के ईश्वर का है। उसमें जितने भले बुरे, जीव निर्जीव हैं सब की सृष्टि और पालन का भार ईश्वर के आधीन है। इसके लिए किसी को निन्दा और किसी से द्वेष करना आप के हक में महापाप है । यदि ऐसा करने का विचार भी करें तो अपने जगत पिता के अपराधी होंगे। क्योंकि यह आप को मालूम ही क्या है कि उस सर्वेश्वर ने किस को किस लिए जिला रक्खा है। और सुनिए, यदि आप आस्तिक हैं तो अपने निज के लिए कारस्तानी भी छोड़िए । तुम्हारे लिए जो कुछ मुना. सिब है वुह परमेश्वर स्वयं कर लेगा? बाप क्या उससे अधिक हैं जो अपनी अकलमंदी छौंकते हैं ? आप उस्के सलाहकार हैं क्या? वुह जो समझेगा करेगा। यदि आप उसकी इच्छा में हस्तक्षेप करें तो कठिन बेअदबी है। आप से तो नास्तिक ही अच्छा क्योंकि वुह दूसरे को मानता ही नहीं जिस का सहारा ले ! नास्तिक जानते हो किसे कहते हैं कि उस की निन्दा ही सीख ली है ? देखिए 'न आस्तिको विद्यते यस्मात्परं सनास्तिकः' अर्थात् जिससे बढ़ के कोई आस्तिक न हो क्या यह सहज है। बहुतेरे आस्तिक केवल लोकनिंदा और परलोक जातना के भय से तथा संसार के सुख, परमार्थ के कल्याण की लालसा से ईश्वर को मानते हैं पर नास्तिक उस भय और लालच को पर्वाह नहीं करता। फिर कहिए डरपोक लालची अच्छा या निर्भय निलाम अच्छा ? हमारे शास्त्रकारो के शिरोमणि मनु भगवान नास्तिक का लक्षण यों कहते हैं-'नास्तिको वेदनिंदकः', अर्थात् वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक है। पर हमारे आस्तिकों के परमाराध्य श्री कृष्ण भगवान कहते हैं-'गुण्यविषया वेदानिस्त्रगुण्यो भवार्जुन' और सच भी है, जब तक हम कर्म ज्ञानादि के झगड़ों में पड़े हैं, जब तक लोक बेद के बंधन में पड़े हैं तब तक