पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली हम अपने प्रेमदेव का साक्षात जीवित सम्बन्ध कैसे प्राप्त कर सकते हैं। इस रीति से मनु जी की आज्ञा का यह अर्थ होना चाहिए कि नास्तिक ( नहीं हैं ) को (कोन ) वेद निंदकः ( वेद का निंदक ) अर्थात सभी सच्चे आस्तिक कर्म, उपासना, ज्ञान के निंदक हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिक्षण ईश्वर से तन्मय रहने में आनन्द आता है, मुक्ति मुक्ति को युक्ति के खटराग में क्यों पड़ने लगे ! जो सच्चे जी से किसी संसारी जीव को चाहता है वुह तो दीन दुनिया, लोक परलोक की पर्वा करता ही नहीं। परम सुन्दर परमात्मा को चाहने वाला क्या इन झगड़ों को चाहेगा? आप अपने वेद, इजील, कुरान को मानिए, परलोक को मानिए, हमें क्या। हम अपने जिस को मानते हैं उस को मानते हैं। ईश्वर कुछ आप ही का प्रभु तो हई नहीं, हमारा भी है। फिर क्या, हम अपने ईश्वर को चाहे मानेंगे चाहै न मानेंगे, आप को क्या ! आप कही के काजी हैं ? यदि आप कहें कि हम तुम्हें इसलिए सिखाते हैं कि वेद कुरान आदिक ईश्वर को पुस्तकें हैं, उन का न मानना नास्तिकता है, तो हमारे भी मुंह है, हम भी कहेगे कि ईश्वर की यही पांच छः पुस्तकें हैं अथवा और भी हैं ? यदि यही हैं तो आप के ईश्वर को दूर हो से दंडवत है ! हम तो उसे अनन्त विद्यामय कहते हैं और आप चार संस्कृत की, एक अंगरेजी को, एक अरबी की पुस्तकों पर उसके विद्वत्ता की इतिश्री किए देते हैं ! और यदि उसकी और भी कोई पुस्तक है तो आप को क्या प्रमाण है कि हम नहीं मानते । हम मानते हैं अपने अन्तःकरण की पुस्तक को, सृष्टिक्रम की पुस्तक को। क्या यह उस की पुस्तकें हैं ! बरंच वह तो खास उसी की लिखी पुस्तकें हैं ! पर इन झगड़ों से हमें क्या है। हम तो मानेंगे तो उसे मानेंगे, पुस्तक उस्तक क्यों मानें । यदि हम आपको चाहते होते तो हम मतलबी यार नहीं हैं कि आप के रूप गुण धन आदि को चाहते ! यदि इस्पर आप का जो निन्दा किए बिना न रहे तो कीजिए साहन, हम तो नास्तिक हई हैं-काफिरे इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नेस्त । हमें आपकी बनावटी आस्ति- कता पसन्द नहीं है ! हम एक सच्चे दृढ़ नास्तिक की प्रतिष्ठा असंख्य कृत्रिम आस्तिकों से अधिक करने हैं। खं० ५, सं० ३ और ५ ( १५ अक्टूबर, दिसंबर ह. सं० ४) जवा मनुष्य तो मनुष्य ही है, बैल भी इस नाम से कांपता है ! छोटा सा कोड़ा इसी माम की बदौलत सुंदरी स्त्रियों की सुंदरता और प्रेमपात्र बच्चों की सुधरता तथा निद्रा मिट्टी में मिला देता है। फिर न जाने दिवाली में लोग क्यों ऐसे बौखला जाते हैं कि दिन रात जुवा जुवा हुवा हुवा किया करते हैं। यों देखो तो पेट भर रोटी नहीं है, कमर पर लंगोटी नहीं है पर उनसे भी पूछो तो कोई कहता है 'सौ हारे', कोई कहता