पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जुवा ] १५७ है 'पचास हारे'! धन्य री धन्य परंपरा! मनु जी जो हमारे शास्त्रकारों के शिरोमणि हैं, हंसी के लिए भी इसका खेलना वजित करते हैं, पर वुह मनु जी से भी बढ़ गए जो कहते हैं दिवाली में न खेले तो गदहा का जन्म पाता है। बाजे २ बुद्धि के शत्रु शिव, युधिष्ठिर, बलदेव, नल आदि का नाम लेके कहते हैं कि वे खेले हैं तो हम क्यों न खेलें ! सच हैं, युधिष्ठिरादि के से मभी काम कर चुके हैं तो एक यहो क्यों रह जाय ! ऐसी ही समझ ने बुद्धि हर ली है नहीं तो पुराणों मे जिन को प्रमाण मान के आप जुवा की लत अपने पीछे लगाते हैं उनमे दो बातें हैं, एक इतिहास, दूसरी आज्ञा और हम युधिष्ठिरादि के बचनों को मानने वाले हैं न कि उनके निज चरित्रों में दखल देने वाले । यदि बड़ों से कोई भूल हो तो उसका अनुकरण हमको श्रेयस्कर नहीं है । वेद का वाक्य है कि "यान्यस्माकं-- सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि ना इतराणि" अर्थात बड़े लोगों के अच्छे काम हमें सीखना चाहिए न कि जुवा आदि बुरे काम । उन्होंने यदि खेला तो उसका फल भी क्या पाया ? शिवजी ने अपने स्त्री पुत्रों में झगड़ा फैलाया। नल ने राज्य खोया। युधिष्ठिर ने भारत का सर्वनाश ही करा दिया! बलदेव जी ने रुक्म (कृष्णचंद्र जी के साले) का प्राण लिया। जब कि बड़े बड़ों की यह गति जुवा के पीछे हुई तो तुम कौन जग जीतने की आशा रखते हो। हम तो यही कहेंगे कि उन्होंने हमें जुवा को बुराई दिखलाने के ही लिए खेला था। यह बात भी प्रसिद्ध है कि बड़े जो कुछ करें सों न करना चाहिए। उन्होंने खेला है पर हमें खेलने की आज्ञा कहीं नहीं दी। यदि कहीं किसी पुराण अथवा उपपुराण में प्रगट वा प्रच्छन्न आज्ञा हो भी तो उसके पात्र बिचारना चाहिए। हमारी दृष्टि में ऐसा वचन नहीं आया पर यह कहते हैं कि राजा को योग्य है । खैर राजाओं के लाखों का धन होता है, वे हजारों रु. दूसरों को दे सकते हैं। वे खेलें पर तुम्हें परमेश्वर ने आँखें दी हैं, तुम्हें क्या सूझी है कि दस पंद्रह की तो नौकरी करो, दो चार सौ अपने पराए कगाकर रूजगार करो, पर हारने के समय चार २ सौ नसाय देव ! भला वर्ष दो वर्ष खाने कपड़े में कष्ट उठाए बिना अथवा अपने दीन आश्रितों को सताए बिना यह गढ़ा क्यों कर पूरा हो सकता है। बुद्धिमानों ने इसे सब दुर्गुणों का घर कहा है सो बहुत ठीक है। घर से चलते ही जुवारियों को यह विचार होता है कि सबका धन बिना परिश्रम, बिना उस धन के स्वामो का कुछ काम किए मेरे हाथ आ जाय । खेलने के समय चाहे जैसा मित्र बैठा हो उसे भी यही कहेंगे, 'बेईमानी करते हो' रोए देते हो' इत्यादि । जब इसका भूत चढ़ता है तब दिन रात मन वचन कर्म से इसी में संलग्न रहते हैं । यों तो सभी पर्व आमोद प्रमोद करने के लिए नियत किए गए हैं, क्योंकि गृहस्थों को बारहो मास गृहधंधों को चिंता चढ़ी रहती है और चिंता शरीर की शोषण करने वाली है इससे हमारे दयालु पूर्वजों ने प्रत्येक मास में एक दो दिन ऐसे नियत कर दिए हैं जिनमें निश्चिन्त हो के भगवद्भजन या और किसी रीति से आत्मपोषण किया जाय । उसमें भी तो होली, दिवाली विशेष हैं जिन में लड़के, बूढ़े, धनी, दरिद्री, विद्वान, मूर्ख, त्री, पुरुष सभी यथासामर्थ दिल खुश कर लेते हैं। पर विचारे जुवारियों की दशा पर खेद