पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१५८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथापली है कि अपनी बुद्धि से चार २ दिन लामा और सोना अपने ऊपर हराम कर लेते हैं। खास पर्व के दिन बाजे २ घरों में दिया जलाना और खील मिठाई खिलोना आदि से कुटुंब को तथा दीपश्राद से पित्रों को एवं पूजन से देवताओं को प्रसन्न करना दूर रहा उलटा स्त्रियों पर इसलिए डंडे बाजी होती है कि 'गहना क्यों नहीं उतार देती'! बाजे २ इतने में भी नहीं संतुष्ट होते तो चोरी तक करके धन लाते हैं, पर दिन रात छ छ !! ® !!! हौंकने में कोताही नहीं करते। यदि दैवयोग से जीत गए तो यह कहना तो व्यर्थ है कि वुह जीतना जिसमें पराई आत्मा कलपा के अपनी जेब भरे, अनुचित है, पर इसमें संदेह नहीं कि हराम का धन भले काम में नहीं लग सकता। प्रत्यक्ष हेर फेर के साथ वुह उन्हीं के घर जायगा जिनसे देश का सत्यानाश होने में कुछ न कछ सहायता होती है। यह भी नहीं कि इन्हीं तीन चार दिनो या इसी महीने में खेल छुट्टी हो जाय । जीतने पर अधिक लालच और हारने पर घटी पूरी करने की उमंग में बाजे २ बारामासी द्यूतकार होने के लिए भी इसी शुभ दिन में आरंभ कर देते हैं जिसका फल बदनामी, निर्धनता, चोरीकी लत,न्यायी हाकिम के यहां झाड़बाजी, बड़ा घर, ईश्वर के यहाँ दंड इत्यादि बने बनाए हैं ! बरंच हमारा तो यह सिद्धांत है कि अपनी बुरी आदतों का गुलाम हो जाना ही महा नर्क है ! और यह बड़े २ बुद्धिमानों ने दृढ़ता से सिद्ध कर दिया है कि बुरे कर्म पहिले बहुत थोड़े जान पड़ते हैं पर धीरे २ मन में स्थिर हो के अनेक बुराइयों को उत्पन्न करके सर्वनाश का कारण होते हैं। फिर भला जुवा को सब बुराइयों का उत्पादक कहें तो क्या झूठ है ? पाप का बाप लोभ प्रसिद्ध है और उसी का मूल कारण जुवा है जिसका सर्वोत्तम फल यह है कि सहज में पराया धन हाथ में आवे, फिर इसको बुराइयों का ओर छोर क्या हो सकता है ? अतः जहाँ तक हो बुद्धिमानों को इससे सदा बचना चाहिए। क्या होली क्या दिवाली बुरा काम सदा सब ठौर बुरा ही है ! हमारे कानपुर ही की एक सच्ची कथा है कि एक बनिया साहब खेल में तन्मय हो रहे थे, घर से खबर आई कि लड़का मर गया। उत्तर दिया कि फिर हम क्या चल के जिला लेंगे ? डाल आओ, हमें फुरसत नहीं है। भला ऐसे परम निर्मोही महर्षियों को तो हम क्या कहें ब्रह्माजी भी नहीं समझा सकते । पर हमारे पाठक कुछ भी इसकी ओर से मुंह फेरेंगे तो उन्ही के लिए अच्छा है। खं० ५, सं० ४ ( १५ नवंबर ह. सं० ४)